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कितनी भारी भूल-महामिथ्यावका कारण है ! यह पाठक स्वयं वि. चार कर सकते हैं।
तेरापंथियोंका यह कहना भी सरासर झूठा है कि-'भगवान्ने लब्धि फोरी इस लिये चूके'। भगवान्ने अपने स्वार्थके लिये लब्धि नहीं फोरी । अथवा किसी और माया-कपटसे नहीं फोरी । सिर्फ जीवको बचानेके आशयसे ही फोरी है। और इस तरहसे संघादिके कार्योंके लिये साधु अगर लब्धि फोरे, तो उसमें भगवान्की आज्ञा ही है । देखिये, भगवती सूत्रके तीसरे शतकके पांचवें उद्देशेमें, पत्र २८१ में कहा है:__“से जहा नामए केइपुरिसे असिचम्मपायं गहाय गच्छेज्जा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा आसिचम्मपायंहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उढे वेहासंउप्पएन्जा ? हंता उप्पइज्जा ।"
अर्थात्-जैसे कोई पुरुष, ढाल-तलवारको ग्रहण करके जाय, वैसे भावितात्मा-साधु, हाथमें ढाल-तलवारको लेकरके संघादिकके कार्योंके लिये ऊर्ध्व-आकाशमें जावे ? हे गौतम जाय । ___ अब विचारनेकी बात है कि-यदि साधुको लब्धिफोरनेका निषेधहीं होता, तो भगवान् यहाँ आज्ञा ही क्यों देते ? इतनी जरूर बात है कि-साधु अन्य किसी स्वार्थी कार्यके लिये लब्धि न फोरे !।
जो लब्धिफोरनेकी चर्चा, ऊपर की गई है, उस लब्धिके विष. यमें भी तेरापंथियोंके परस्पर ऐसे विरोधी वाक्य मिलते हैं, जिनको देखकर यही कहना पडता है कि-तेरापंथी मतके उत्पादक भीखुनजीमें शास्त्रकी तो गन्ध तक भी नहीं थी। बल्कि भांगकी ठंडाई पी पी करके ही बैठे २ कल्पनाएं की हों, ऐसे प्रतीत होता है । (जैसे