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वगैरह जितनी बातें पाई जाती हैं, वे प्रशस्त हो पाई जाती हैं, अप्रशस्त नहीं । हम पूछते हैं कि-भगवान्, संयम-तप वगैरहकी आराधना करते हैं, वे सरागपनेसे करते हैं कि-निरागपनेसे ? । यदि सरागपनेसे करते हैं, तो फिर इन कार्योंमें भगवान्को ' चूके ' क्यों नहीं कहते ? । इन कार्यों में भी भगवान्को 'चूके' कहने चाहिये । अच्छा । भगवान् संयमादि कार्य निरागपनेसे करते हैं, ऐसा तो कह ही नहीं सकते हो । क्योंकि-दश गुणठागे पर्यन्त तो सरागपना रहता ही है । और जब तक सरागपना है, तब तक लब्ध्युपजीवीपना भी रहता है, अर्थात् लब्धि फोरनेका कारण भी रहता है । वीतराग अवस्थामें यह कारण नहीं रहता। इसी लिये तो भगवतीसूत्रके १२१७-१८ पत्रके उपर्युक्त पाठमें, टीकाकारने स्पष्ट खुलासा कर दिया है कि:___ " इह च यद् गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागस्वेन दयैकरसत्वाद्भगवतः , यच्च सुनक्षत्रसर्वानुभूतिमूनिपुङ्गवयोर्न करिष्यति तद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीवकत्वादवश्यमाविभावत्वाद्वैत्यवसेयमिति ।"
अर्थात-भगवान्ने गोशालेका जो संरक्षण किया है, उसमें भगवान् का 'दयामयपरिणाम ही कारण है । और जिस समय सुनक्षत्र-सर्वानुभूतीका प्रसंग आया, उस समय भगवान्में वीतरागत्व होनेसे उन दोनोंको बचानेका उन्होंने कुछ भी प्रयत्न नहीं किया । क्योंकि उस समय लब्धि फोरनेका भी कोई कारण नहीं रहा था, और भावीभावको भी भगवान् जानते थे कि-ऐसा होनेवाला है। परन्तु जब भगवान् छद्मस्थावस्थामें थे, उस समय कार्यविशेषोंमें लब्धिफोरना अपना कर्तव्य समझते थे, और जान बूझ करके ही भगवान्ने गोशालेको बचाया है, तो फिर उसमें भगवान्को 'चूके' कहना