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उन प्रसंगों में दुर्गधी के सामने सामायिक या पौषध करने को बैठे थे, जो तेरापंथियोंके मन्तव्यानुसार मुहपत्ती बांधे ? ।
अगर तेरापंथी, मुँह ढकने के प्रसंगों को ही आगे करके अपना बचाव करना चाहते हैं, तो उनको, उतनी दूर २ तक पहुँचकी आवश्यकता ही क्या थी ? | यों ही कह देते कि - "जब भंगी लोंग, शहरकी टट्टियों को साफ करके, गाडी भरके जाते हैं, तब उसके पास होकर आने जाने वाले सैंकडों लोग मुँह पर कपडा रख करके जाते हैं, इससे सिद्ध हुआ कि - मुँहपर मुहपत्ती बांधनी चाहिये । "
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बस छुट्टी पाई | कैसी उत्तम युक्ति ? ऐसी युक्तियों को आगे करना, यह भी बुद्धिमत्ताका ही काम है ! ।
इसी ' मुख' वस्त्राधिकार' में आगे चलकर के 'नाक' को 'मूँह ' कहलाने के लिये बहुत कुछ प्रयत्न किया गया है । परन्तु यह सच प्रयत्न व्यर्थ ही है । क्योंकि इससे सिद्धि क्या होनेकी है ? ।
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नाकको 'मूँह' कहते हों, ऐसा हमने कहीं नहीं सुना, न किसी कोश में भी देखा | देखिये श्रीहेमचन्द्राचार्यने, अपने 'अभिधानचिन्तामणि' कोश के तीसरे काण्डमें पृष्ठ २१३ भी कहा है :--- " तुण्डमास्यं मुखं वस्त्रं लपनं वदनानने ॥ २३६ ॥
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इसमें 'नाक' का तो नाम ही नहीं है । टीकामें भी आचार्यवर्ष लिखते हैं: - ' मुखे दन्तालयस्तरं घनं चरं धनोत्तमम् | दांतके घरको मुख कहते हैं । अब तेरापंथी नाकको कैसे 'मुँह' कहते हैं ? । अच्छा, थोडी देर के लिये हमने मान भी लिया कि - 'नाक' को मुँह कहते हैं, लेकिन इससे हुआ क्या ? | दुर्गधी के कारण 'नाक' ढकने के प्रसंगसे, मुहपत्ती बांधे रखना तो किसी तरह सिद्ध
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