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मृवाभाषा, और ४ असत्यामृषाभाषा । हे भगवन् ! इन चारों प्र । कारकी भाषाको बोलता हुआ साधु क्या आराधक है कि विराधक ? ! हे गौतम ! इन चार प्रकारकी भाषाओंको 'आउत्तं' यानि प्रवचन
मालिन्यादि के कारण विशेषोंमें, लाभालाभको देख करके बोलता हुआ साधु आराधक है, न कि विराधक |
अब देखिये, यहाँ भगवान् ने प्रवचनमालिन्यादि कारणों में लाभालाभको देखकरके मृषा बोलने वालेको भी आराधक कहा ? ।
अहा ! कैसी दयाकी महिमा ! कैसा अनुकंपा के लिये विधान, । जैनसूत्रोंमें, अनुकंपाकी इतनी महिमा होनेपर भी, हम नहीं समझ सकते हैं कि तेरापंथी लोग क्योंकर इसका निषेध करते हैं ? क्योंकर ऐसा मानते हैं कि 'जीवको मारनेमें एक पाप और बचानेमें अठारह पाप लगेंगे ? । '
अगर स्थूलबुद्धिसे भी विचार किया जाय, तो मालूम हो सकता है कि - यदि मारने की अपेक्षासे, जीवके रक्षण करनेसे विशेष पाप होता तो, भगवान् 'पाणाइवायाओ वेरमणं' क्यों कहते ? | 'पाणरक्खाओ वेरमणं' ही कह देते। क्योंकि प्राणाविपातविरमणव्रतसे, तो, देशसे एक हिंसाका पाप हटेगा, और जीवरक्षाविरमणव्रतसे, तेरापंथियोंके मन्तव्यानुसार अठारह पाप हटेंगे। लेकिन भगवान् ने तो ऐसा कहीं भी नहीं कहा । तो फिर ये तेरापंथी, जीवके बचा नेमें अठारह पाप कैसे मानते हैं ? |
बात यह है कि - मनुष्यकी बुद्धि जब विपरीत हो जाती है, तब उसको सत्यासत्यका ख्याल नहीं रहता । वह हरएक बात में उलटा ही देखता है । यदि तत्त्वदृष्टिसे विचार किया जाय, तो संसार में