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जितने कार्य किये आते हैं, उनमें पुण्यपापका आधार खास परि. णामके ऊपर रहता है । इसी लिये तो हम पाहले लिख आए हैं कि-परिणामसे बन्ध, क्रियासे कर्म और उपयोगसे धर्म होता है । यों तो संसारकी सारी क्रियाओंमें, फिर वे सांसारिक या धार्मिक ही क्यों न हों, जीवोंकी विराधना रही हुइ है, परन्तु, जिन क्रियाओंमें, जीवविराधना करनेका इरादा न हो, और किसी शुभ कार्यके लिये. ही प्रवृत्ति की गइ हो, तो उसमें पापका डर रखना, बिलकुल अज्ञानताका सूचक ही है । यदि ऐसी बातोंमें भी पाप लग जाता तो, भगवान् मृगपृच्छादिके कारण साधुको मृषावाद बोलनेकी आज्ञा देते ही क्यों ? । नदीमें पड़ी हुई साध्वीको, नदीमें गिरकरके निकालनेको फरमाते ही क्यों ?। कोणिकराजा, बडे आडंबरके साथ, रस्ते में असंख्याता जीवोंकी हिंसा करते हुए भगवान्को वंदणा करनेके लिये, जाता ही क्यों ? । सुबुद्धिमंत्रि, राजाको प्रतिबोध करनेके लिये, खाईके दुर्गधी-जीवोंके पिंडवाले जलको घडेमें वारंवार परावर्तन करते ही क्यों?। और मल्लीनाथ भगवान् , जितशत्रु आदि छहों राजाओंको प्रतिबोध करने के लिये सुवर्णकी पोली पुतलीमें छे महीनोंतक आहारके कवल भर २ करके अयन्त दुर्गवत्राले पदार्थोंको रख छोडते ही क्यों ? । तब अवश्य कहना होगा कि-यहाँ पर इन लोगोंका अभिप्राय-परिणाम, जीवोंकी विराधना करनेका नहीं था, परन्तु शुभकार्यका ही था । और इससे इन लोगोंको, जीवविराधनेका बुरा फल नहीं कहा, किन्तु शुभकार्य करनेका अच्छा ही फल कहा । क्योंकि-परिणाम अच्छे कायौँके करनेका था। - इसी प्रकार एक विशेष लौकिक दृष्टान्तको भी सुन लीजिये। एक मनुष्य अपने छोटे बच्चेको दोनों हाथोंसे खडे २ खिला रहा