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नहीं है, और मेरे हाथ फिरानेसे ही यह बचनेवाला है, तो उस अवस्थामें अनुकम्पाकी बुद्धिसे, साधु हाथ फिरावे और उसको बचावे, तो कोई हर्जकी बात नहीं है । क्योंकि-यहाँ साधुको किसी प्रकारका स्वार्थ नहीं है । सिर्फ अन्य कोई उपाय न होनेके कारण, अपवाद मार्गमें ऐसा करना पड़ता है। और इस प्रकार अपवादके समय गृहस्थकी वैयावृत्त्य करनेके लिये शास्त्रकारोंका फरमान भी है । जैसे-न्यायविशारद-न्यायाचार्य श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्याय, अपनी बनाई हुई ' द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ' की प्रथम द्वात्रिंशिकामें लिखतें हैं किः" वैयावृत्त्ये गृहस्थानां निषेधः श्रूयते तु यः ।
स औत्सर्गिकतां बिभ्र नैनस्यार्थस्य बाधकः ॥ १२॥ . अर्थात्-गृहस्थोंकी वैयावृत्त्यमें, जो निषेध सुना जाता है, वह उत्सर्ग मार्ग है । और इससे अपवादमार्गमें कोइ हरकत नहीं आसकती । अर्थात् अपवादमार्गमें इसका निषेध नहीं है।
इससे स्पष्ट सिद्ध हुआ कि-अपवादके समय साधु, अगर ऐसा कार्य कर भी ले तो कोई हर्जकी बात नहीं है। - बात यह है कि प्रत्येक कार्यमें परिणाम देखा जाता है । भगवान् महावीरदेवने गोशालेको बचाया, इसमें क्या था ?। इसमें भी भगवान्ने अनुकंपाके आनेहीसे गोशालेको बचाया है। देखिये, भगवतीसूत्र, श० १५, उ० १, पत्र १२१७ में कहा है:
"तएणं अहं गोयमा ! गोसालस्म मंखलिपुत्तस्स अणुकंपयणद्वार वेसियायणस्स बालतवस्पिस्स सा उसिणतेयलेस्सा तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं णिसिरामि ।"