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ही क्यों ? हम तो कहते हैं कि-यदि ऐसा ही होता तो किसीको साधु भी न बनाना चाहिये। क्योंकि-साधु हो करके, वह देवलोकमें जायगा । वहां अवती-अपचक्खानी होगा। इतना ही नहीं, वहाँ देवांगनाओंसे भोग भी भोगेगा । तो यह सब पाप भी तेरापंथियोंके मन्तव्यानुसार, दीक्षा देनेवालेको लग जाने चा: हिये । और अगर ऐसे ही पाप लगते हों, तो फिर मूंडते ही क्यों
कहना कुछ, और करनाः कुछ, यह अज्ञानता तेरापंथियोंमें ! खूब ही देखी । अस्तु, अब इस वृत्तान्तको हम यहाँ ही छोडकर, थोडी देरके लिये, तेरापंथी, इस विषयमें जो कुतकें करते हैं, उनको ही देखें । पश्चात् जैनसूत्रोंके पाठोंसे और युक्तियोंसे भी अनुकंपाको सिद्ध करेंगे।
पाठकोंको एक बात फिरसे समझ लेनी चाहिये । तेरा. पंथियोंका यह मन्तव्य है कि-'असंयती जीवोंका न जीना चाहना चाहिये, न मरना । किन्तु तैरना चाहना चाहिये ।' जैसे, महा
चन्द बयद लिखित 'जिनज्ञानदर्पण प्रथमभाग' के ८१ वें पृष्ठमें लिखा है:___" असंजति अब्रती जीवको जीवणो बंछणो के मरणो । बंछणो:-असंजतिको जीवणो बंछणो नहीं मरणो बंछणो नहीं, संसारसमुद्रसें निरणो बंछणो, ते श्रीबीतरागदेव को धर्म छै ।"
बस, ऐसा समझ करके ही मरते हुए जीवोंको वे नहीं बचाते । तेरापंथी साधुओंके सिवाय, संसारके समस्त जीवोंको वे ' असंयती' ही मानते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि-सिवाय तेरापंथी साधुओंके, अगर संसारमें रहा हुआ कोई भी जीव मरता होगा, तो उसको बचानेका प्रयत्न वे नहीं करेंगे। .