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" पाणे य णाइवाएजा, अदिनं पि य णादए । सादियं ण मुसं बूया एस धम्मे बुसीमओ "॥१९॥ पृष्ठ ३६७ ___ अर्थात्-साधु, प्राणियोंके प्राणोंका नाश न करे, अदत्त ग्रहण न करे और सादिकं, यानि मायाकरके सहित मृषावाद न बोले, संयमवन्त-जितेन्द्रिय साधुका यही धर्म है। _ अब विचार कीजिये । जब यह कहा गया कि-' साधु, माया करके सहित मृषावाद न बोले ' तो इससे ही स्पष्ट सिद्ध होता है कि-मषावाद बोलनेका और भी कोई तरीका जरूर है । और इसी लिये टीकाकार श्रीमान् शीलांगाचार्यजीने टीकामें स्पष्टीकरण करके कह दिया कि___“ यो हि परवश्वनाथ समायो मृषावादः स परिहियते । यस्तु संयमगुप्त्यर्थ न मया मृगा उपलब्धाः' इत्यादिकः स न दोषायेति।" ___ अर्थात्-जो परवंचनके लिये माया सहित मृषावाद है, वह त्याग करे, परन्तु संयमकी गुप्ति-संयमकी रक्षा के लिये ' मैंने मृग नहीं देखे ' ऐसा कहा जाय, तो यह दोषके लिये नहीं है । ___ बात भी ठीक है, यह मृषावाद अपने स्वार्थके लिये अथवा दूसरोंको ठगनेके लिये नहीं बोला जाता है। किन्तु जीव बचानेकी बुद्धिसे, अनुकंपाके लिये बोला जाता है। इस लिये यह दोषके लिये हो ही नहीं सकता। ___ अच्छा, इसी मतलबका दशवैकालिकसूत्रका एक और पाठ भी देख लीजिये । दशवैकालिकसूत्रके चतुर्थ अध्ययनमें दूसरे महाव्रतकी व्याख्या में कहा है:___"दलो जानेगे मुसाचार को भावगे। भावओ णामेगे णो दव्यओ। एगे दम्बओ वि भावओ वि। एगे णो दन्चओ
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