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जैसा बोलनेके लिये फरमाया, वहाँ पर वैसाही बोलना पडेगा । जो महाशय मृगपृच्छादिके कारणमें ' हम नहीं जानते ' ऐसे कहनेका निषेध करते हैं, अर्थात् इसको झूठ समझकर गभरा जाते हैं, उन महाशयोंसे हम पूछते हैं कि-आप सत्य किसको कहते हैं ? । द्रव्यसे (लोक रूढी मात्रसे) जो सत्य है, उसीको परमार्थसे सत्य कहते हो ?। ऐसे नहीं हो सकता। क्योंकि, एक मनुष्य काणा है, तिसपर भी उसको 'काणा' कहनेके लिये भगवान् निषेध करतें हैं । देखिये दशवकालिक सूत्रके सातवें अध्ययनमें लिखा है:"तहेव काणं काण त्ति पंडगं पंडग त्ति वा। वाहि वा वि रोगित्ति तेणं चोरत्ति नो वए ॥ १२ ॥ पृष्ठ-४४०
अर्थात्-साधु, काणेको 'काणा, ' नपुंसकको 'नपुंसक,' रोगीको 'रोगी, ' और चोरको 'चोर' भी न कहे ।।
अब बतलाईये, काणेको ' काणा' कहना, नपुंसकको 'नपुंसक' कहना, रोगीको रोगी' कहना और चोरको 'चोर' कहना, यह क्या सत्य नहीं है ? । अवश्य सत्य है । परन्तु यह द्रव्यसे सत्य है, भावसे नहीं । और इसी लिये भगवान्ने ऐसा बोलनेके लिये निषेध किया इसी तरह मृगपृच्छादिके कारण में ' हम नहीं जानते' यह द्रव्यसे ' असत्य ' है, भावसे असत्य नहीं । और इसी लिये ऐसा बोलने के लिये भगवान्ने आज्ञा फरमाई है।
यह आज्ञा भगवान्ने आचारांगसूत्रेम ही नहीं फरमाई, अन्यसूत्रों में भी फरमाई है । जैसे देखीये,
सूयगडांगसूत्रके प्रथम श्रुतस्कंधके आठवें अध्ययनमें भी कहा है: