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इत्यादि एक ही अर्थको कहनेवाले, शब्दोंमें रहे हुए आंतरिक वैलक्षण्यको तो समझते ही कैसे होंगे ।
कहनेका मतलब कि-अनुकंपाके रहस्यको समझनेके लिये जितनी शाब्दिक व्युत्पत्तिके ज्ञानकी आवश्यकता है, उतनीही प्रतिभाकी प्रबलताभी चाहिये । टब्बा-टब्बी और भाषा-भूसासे ऐसे विषयों में कार्य नहीं चल सकता । किस विषयमें कैसे शब्दोंके प्रयोग करने चाहियें ? अथवा अमुक प्रसंगमें अमुक शब्दका क्या अर्थ होता है, इस ज्ञानको प्राप्त करनेके लिये व्याकरण न्याय-साहित्यादिके अभ्यासकी बहुतही जरूरत है । ऐसे अभ्यासके अभावहीसे तेरापंथी, अनुकंपाके विषयमेंभी भ्रमित हुए हैं, अर्थात् जहाँ मोहरस अर्थ है, वहाँ भी अनुकंपा मान करके वास्तविक अनुकंपाको उठा देते हैं । इस विपयमें विशेष परिचय पाठकोंको आगे चल करके कराया जायगा ।
___ यहाँ पर एक और बात कह देनी उचित होगी । तेरापंथी कहते हैं कि हम बत्तीससूत्रों के मूलपाठोंके सिवाय, न और कोई सूत्र मानते हैं, और न नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका मानते हैं। ऐसा कहते हुए भी मानते हुए भी, जब हम इस पन्थकी ' भर्मविध्वंसन' 'ज्ञानप्रकाश ' वगैरह पुस्तकें देखते हैं, तब उन पुस्तकोंमें जगह २ सूत्रोंकी टीकाओंका और बत्तीससे अन्य सूत्रोंका भी आश्रय लिया हुआ देखनेमें आता है। अब यह सोचनेकी बात है कि-' ऐसा क्यों ?' । जब बत्तीस सूत्रोंके मूल पाठोंके सिवाय और कुछ मानतेही नहीं हैं, तो फिर अपनी मतलब निकालनेके लिए इधर उधर भटकनेकी जरूरत ही क्या है ? । लेकिन यह नहीं हो सकता ? । चाहे तेरापंथी हों, चाहे ढूंढिये हों, चाहे पैंसालीस सूत्रोंके माननेवाले भले मूर्तिपूजक ही क्यों न हों,