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हृदय प्यासे परिपूर्ण था। और जिनका हृदय दयापूर्ण होता है, वे अनुकंपा करनेके समय, गुण-अवगुगोंको देखने नहीं बैठते हैं। जैसे कहा भी है:-- . " निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ।
न हि संहरति ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनि" ॥ १॥ जैसे चन्द्र, चाण्डालके घरमेंसे भी अपने प्रकाशको नहीं हरण कर लेता है, अर्थात् वहाँ भी प्रकाश डालता है, वैसे सजन लोग, निर्गुणी जीवोंपर भी दया अवश्य करते ही हैं।
हमारे लोकोत्तर पुरुषों (तीर्थंकरों) ने, जिन २ बातोंका भव्यजीवोंको उपदेश दिया है, उन २ बातोंका स्वयं भी आचरण कर दिखाया है । परमात्माके चरित्रको अवलोकन कीजिये । जिस चार प्रकारके (दान-शील-तप-भाव) धर्मोकी परमात्माने परूपणा की है, उन्हीं चार प्रकारके धर्मोंकी, स्वयं आराधना भी की है। जिस क्षान्त्यादि धर्मोको पालनेके लिये यतियोंको-साधुओंको आज्ञा की है, उन्हीं क्षान्त्यादि धर्मोंका खुद परमात्माने भी आच. रण किया है । इसी प्रकारसे जिस अनुकंपा करनेको भगवान्ने फरमाया है, उसी अनुकंपाको आपने भी कर दिखाई है । जैसे देखिये, .
परमात्मा महावीर देवने, गोशालेको बचाया। भगवान् पार्श्वनाथने जलते हुए काष्ठमेंसे सांप (सर्प.) को निकलवाया । भगवान् नेमनार्थने; अपने विवाह के समय मारनेके लिये इकट्ठे किये हुए मृगोंको, बचाये । भगवान् शान्तिनाथने मेघरथके भवमें कबूतरको बचाया । इत्यादि बहुत दृष्टान्त मिलते हैं।