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नाम, आर्द्रकुमारकी पूरी २ कथा, इत्यादि बातें, तुम्हारे माने. हुए बत्तीससूत्रोंके किसी मूल पाठ में होतीं, और फिर टीका गैरहका आश्रय लिया होता, तो वह उचित गिना जा सकता था । अस्तु, पराये मालसे पूंजीदार बन बैठने की चाल तेरापंथियोंने.. कैसी सीखी है, यह पाठक स्वयं देख सकते हैं ।
यहाँ कहनेका तात्पर्य यह है कि जैसे हमें सूत्र माननीय हैं, वैसे ही नियुक्ति - भाष्य - चूर्णि - टीकाएं भी मानने लायक ही हैं । और प्रस्तुतमें अनुकंपाका विधान, जैसे मूलसूत्रों में है, वैसे निर्युक्ति - भाष्यादिमें भी है। इतना ही नहीं, आचार्योंके बनाए हुए अनान्य सेंकडों ग्रंथों में भी है । यह बात आगे जा करके पाठकों को स्वयं विदित हो जायगी
संसारमें दो प्रकारके मनुष्य होते हैं: - १ लौकिक, २ लोकोत्तर | इन दोनों प्रकारके मनुष्योंको अनुकंपा आदरणीय है । लोकोत्तर पुरुष, जो कि तीर्थकर हैं, वे भी अनुकंपा, समयपर करते हैं, तो फिर हम - लौकिकपुरुष करें, इसमें तो कहना ही क्या हैं ? । जैसे समस्त तीर्थंकर एक वर्ष पर्यन्त वार्षिकदान अनु. कंपाकी बुद्धिसे ही देते हैं । तीर्थकरों के वार्षिकदानमें सिवाय अनुकंपा के दूसरा कोई कारण नहीं हैं। देखिये, श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी भी आवश्यक बृहद्वृत्तिमें लिखते हैं:
" करुणागोचरे पुनरापन्नानामनुकंपया दद्यादपि । यतः उक्तःसव्वैहिं पि जिणेहिं दुज्जयजियरागदो पमोहेहिं । सत्ताणुकंपणट्ठा दाणं न कहिं वि पडिसिद्धं ॥ १ ॥ तथा च भगवंतस्तीर्थकरा अपि त्रिभुवनैकनाथाः प्रविवजिषवः ।