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उपयुक्त पाठमेंभी यह देखनेका है कि-मुहपत्तीकी 'पडिलेहणा करनेको कहा, परन्तु साथ साथ यह नहीं कहा कि-'मुड्पत्ती छोड करके पडिलेहणा करे, और पडिलेहणा करके फिर बांधे ।'
इससे भी हाथमें रखना ही सिद्ध होता है।
हम पहले कह चुके हैं कि-मुहपत्ती, कई नामोंसे शास्त्रों में उल्लिखित है । जैसे मुहपत्ती, मुहपोत्तिया वगैरह । वैसे ही मुड्पत्ती का ' हत्यग' नाम भी है । जैसे दशवैकालिकसूत्रके पांचवें अध्ययनकी ८३ गाथामें कहा है:" अणुनवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नंमि संवुडं ।
हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्य भुजिज्ज संजर"॥८३॥ पृष्ठ ३.९।
अर्थात्-बुद्धिमान संयत ( साधु ), गृहस्थकी आज्ञा लेकरके, ढके हुए स्थानमें उपयोग पूर्वक, हत्थगं यानि मुहपत्तीसे ( हस्तादि अवयवोंको ) पूंजकरके उसी स्थानमें आहार करे ।
यहाँ पर ' हत्यग' शब्द मुहपत्तीका पर्यायवाची है । और उसका अर्थ भी — हाथमें रही हुई। ऐसा स्पष्ट है । इससे भी जाहिर होता है कि-मुहपत्ती हाथमें ही रखने की है-मूंहपर बांध रखनेकी नहीं।
ऊपरके पाठमें ' हत्थग' यानि मुहपत्तीकी पडिलेहणा, आहार करनेके समयकी कही हुई है, उसी प्रकारसे 'ज्ञाता' सूत्रके सोलहवें अध्ययनमें धर्मरुचि अनगारकी कथा चली है । धर्मरुचि अनगार 'नागश्री' नामक ब्राह्मणीके वहाँसे कटुतुंबका शाक ले आए हैं । इनके गुरु श्रीधर्मघोषने कहा है कि-' इसके खानेसे प्राणकी हानि होगी, इस लिये शुद्ध स्थानमें जाकरके परठवणा चाहिये। धर्मरुचि, परवठगेके लिये चले। वहाँ जानेके बाद