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कृपा अने अनुकंप फुन, वलि अनुक्रोस कहाय । नाम एकार्थ आठ ए, तृतियकांडरे मांहि ॥ ७४ ॥ जिनरिषसामुं जोइओ, रत्नद्विपनी जेण । देवीनी करुणा करी, ज्ञाता नत्रमे झयेण ॥ ७५ ॥ करुणा नाम दया तणुं, ते माटे सुविचार | एह दया सावद्य छे, श्रीजिन आज्ञा बहार
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जीतमल्लजीकी बुद्धिमें एक प्रकारका अजीर्णही हुआ, मालूम होता है । नहीं तो ऐसा क्यों लिखते ? । हमने मान लिया किकलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यने, दया-शूक - कारुण्य-- करुणाकृपा - अनुकंपा - घृणा और अनुक्रोश ये आठ नाम अनुकंपाकेदयाके दिखलाये हैं | परन्तु इसका, जिनरिखकी कथाके साथमें संबंध ही क्या है ? | जिनरिखको, रयणादेवीके हावभावसे और पश्चात् रुदनादिके करने से उसके ऊपर करुणरस उत्पन्न हुआ है । देखिये, ज्ञातासूत्र के नववें अध्ययनका वह पाठः
" तरणं जिणरक्खिया समुप्पएण कलुणभावं मच्चुगल स्थलणोल्लियमई अवयक्खतं तहेव जक्खे सेलए ओहिणा जाणिउण सणियं २ उव्विद्दइ २ नियगपिट्ठा हिविगयसढे, तरणं सा रयणदविदेवया णिस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्ठाहि उवयंतं दासे मउसित्ति जंपमाणी अप्पत्तं सागर सलिलं गिण्डियबाहाहिं आरसंतं उवह अंबरतळे उवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता णीलुप्पलगवलअयसिप्पगासेणं असवरेण खंडाखंडिं करेंति । "
पृष्ठ-९५८-९५९,
अब इस पाठमें, ऊपर दिये हुए आठ नामोंमेंसे एक भी नाम नहीं है । इसमें जो कोई शब्द देखा जाता है, वह कलुण (करुण)