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महॉपर भी एक विचारने की बात है कि मुहपत्तीकी पलिहणा के समय यह नहीं कहा कि - ' खोल करके पडिलेहण करे ' अथवा ' पाडलेहणकरके बांध ले । ' एवं ऐसा भी कहीं नहीं कहा कि
मुहपत्तीकी पाडलेहणा करनेके समय दूसरी मुहपत्ती मूँहपर बांधले । ' दो मुहपतियोंके रखनेकाही निषेध है तो फिर बांधनेका और खोलने का कहें ही कैसे ? अस्तु,
इसी प्रकारसे भगवतीसूत्रके, दूसरे शतकके पांचवें उद्देशे पत्र - १९० में श्रीगौतमस्वामीके अधिकार में भी लिखा है कि:--
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तणं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणयंसि पढ़माए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाए, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोतियं पडिलेइ, पडिलेचा भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहेइत्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जइत्ता भायणाई उग्गाइ, उग्गाहेइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता समणं भगवं महावीरं वंद, णमंसर, वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासी"
अर्थ: तब श्रीगौतमस्वामी, छट्ठके पारणेके दिन, प्रथम पोरिसीमें सज्झाय करते हैं, द्वितीय पोरिसीमें ध्यान करते हैं अर्थात् अर्थ विचरते हैं और तीसरी पोरिसीमें शनैः शनैः, मनकी अचपलतासे, असंभ्रान्त अर्थात् यतनापूर्वक मुहपत्ती की पडिलेहणा करते हैं, पडिलेहणा करके, भाजन ( पात्र) तथा वस्त्र पडिलेहते हैं, उनकी पडिलेहणा करके भाजनोंको प्रमार्जते हैं, प्रमार्जन करके भाजनों को ग्रहण करते हैं, और ग्रहण करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं, वहाँ आते हैं । आकरके श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को करते हैं | वंदना - नमस्कार करके इस प्रकार
वंदना - नमस्कार
कहते हैं ।
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