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जीव बचानेका घमंड रखना है, यह बिलकुल झूठा नहीं तो और क्या ? |
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मुखवस्त्राधिकार के अन्तमें भगवतीसूत्र और दशवैकालिकका प्रमाण देकर यह दिखलाने की कोशिश की है कि- 'खुले मूँह से नहीं बोलना चाहिये ।' लेकिन इस बातको अस्वीकारही कौन करता है ? । बेशक, खुले मूँह से नहीं बोलना चाहिये । लेकिन बांधना भी तो नहीं चाहिये । बांधने के विषय में किसी सूत्रके प्रमाण दिये होते तो अच्छा होता । खैर, तेरापंथी बांधने के विषय में एकभी प्रमाण नहीं दे सकते हैं, परन्तु हम नहीं बांधने के विषय में अभी और शास्त्रीय प्रमाण देते हैं ।
मुखवस्त्रिका, मुहपती, मुहपोतिया, हत्थग, मुहणंतग ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । इसी मुखवस्त्रिकाके बांधने के विषयमें आज तक हमें एक भी प्रमाण न मिला । न कोई मुहपत्ती के बांधनेवाले भी दिखा सकते हैं, जो बात ऊपर के वृत्तान्तसे पाठकों के समझ में आभी गई होगी ।
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वास्तवमें देखा जाय तो मुहपत्ती बांधना किसी प्रकार से सिद्ध हो ही नहीं सकता है। क्योंकि - एक स्थूल बातको देखिये । जिस समय, प्रतिक्रमण या सामायिक करते हैं, उस समय काउस्सग करनेके पहिले, “अन्नत्थ ऊससिएणं, नसिसिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं," इत्यादि पाठ कह करके इस प्रकार के आगार रखते हैं कि- "यदि काउस्सगमें. हमें श्वासोच्छ्वास आवें, खांसी आवे, छींक आवे, बगासा आवे तो हम अपने हाथ से मुँहको ढांकें, इससे हमारा काउस्सग भांगे नहीं ।
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अब विचारने की बात है कि - यदि मूँहपर मुहपत्ती बांधी होती तो, इस प्रकारके आगारोंके रखनेकी आवश्यकता ही क्या थी ? | इससे सिद्ध होता है कि-मुहपत्ती खास हाथमें ही रखने की है ।