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'कोई स्वीकार करेंगे कि 'मुहपत्ती उपयोगसे बोलनेके लिये ' रक्खी जाती है । क्योंकि साधुको जितने कार्य करनेके हैं, वे सब उपयोगसे—यतनासे करनेके हैं । जैसे दशवैकालिक सूत्रके, चतुर्थ अध्ययनकी ८ वीं गाथा, पत्र २२२ में कहा है:
जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए । जयं भुजतो भासतो पावं कम्मं न बंधइ ॥ ८ ॥
अर्थात्ः - यतनासे चलते, यतनासे खड़े रहते, यतनासे बैठते, यतना से सो रहते, यतनासे आहार करते तथा यतनासे बोलते हुए साधुको पापकर्मका बंध नहीं होता है ।
कहने का मतलब यह है कि, प्रत्येक कार्य साधुको यतना पूर्वकउपयोग के साथ करनेके हैं। बात भी ठीकही है। 'परिणामसे बंध, ' 'क्रियासे कर्म' और 'उपयोग से धर्म' होता है। जिस क्रियामें उपयोग नहीं रहा, उस क्रियामें यदि जीवकी विराधना न भी हो, तौभी वह क्रिया दोषीली है। और उपयोग रखते हुए भी कथंचित् जीवविराधना हो भी जाय, तो उसको कर्म बंध नहीं होता । बस, इसी तरह उपयोगपूर्वक बोलने के लिये हाथमें मुहपत्ती रखनेका भगवान् ने फरमाया है । लेकिन किसी सूत्र में यह नहीं फरमाया कि - • उपयोग रखने के लिये मुँहपर मुहपत्ती बांधेही रखना ।' और ऐसा किसी चरित्र में भी नहीं देखा जाता है कि - ' किसीने मुँहपर मुहपत्ती बांधी हो । जब ऐसी ही अवस्था है, तो फिर यह कहना सत्य विरुद्ध नहीं होगा कि - मुँहपर मुहपत्ती बांधना शास्त्र और व्यवहार दोनाकी दृष्टिसे अनुचित है ।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं को छोड़ कर, तेरापंथी और ढूंढिये, दोनों के साधु-साध्वी दिन भर मुहपची मुँहपर बांधे रखते हैं ।