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तेरापंथी और ढूंढिये बिना पढे लिखे अज्ञानियों को मूंड लेते हैं, वैसे ये महात्मा ( ! ) भी रागको नहीं समझ करके ही विरागी बन बैठे हो, ऐसे ही प्रतीत होता है ।
ऊपर दिये हुए संवतों से मालूम होता है कि- भीखमजीने पचीसवर्षकी उम्र में ढूंढकमतका पल्ला पकड़ा था । इतनी उम्र में भी आप - की बुद्धिका तेज कितना लंबा-चौडा था, इसके लिये एक ही प्रमाण देख लीजिये । भीखुचरित्र की प्रथम ढालकी ८ वीं कड़ी में लिखा है:
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'गुरु किया रुगनाथजीरे लाल, पूरी ओलख्यो नहीं आचाररे' बडे आश्चर्यकी बात है कि पचीसवर्षकी उम्र में दीक्षा ली, फिर भी आप आचारकी परीक्षा नहीं कर सके । बस, यही आपकी बुद्धिका परिचय है । यदि इसमें थोडीसी भी समझने की शक्ति होती तो ढूंढकपंथमें दीक्षा लेता ही क्यों ? । अस्तु, ऐसे अल्पज्ञ होनेपर भी चरित्रके लेखक तो इसको 'तीर्थंकर' की तरह मानते हैं, यह भी अन्धश्रद्धा का नमूना ही नहीं तो और क्या ? |
चरित्रका लेखक भी अपनेको एक महाज्ञानी समझकरके ही चरित्रको लिखने बैठा है । यदि ऐसा न होता तो चरित्रकी शुरुआत में:
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किहां उदना किहां जनमिया, परभव पहोता किण ठाम । धुरसुं उत्पत्ति त्यारी कहुं, ते सुणजो शुद्धपरिणाम ' ॥५॥
आश्चर्य की बात है कि- 'चरित्रनायक
इसका भी ज्ञान लेखकको हो गया ? | लेकिन ठीक हैं, तेरापंथ-मतके उत्पादक भीखमजीने, परमात्मा महावीर
परभवमें कहां पहूंचे '
कितनी अंधाधुंधी ? |