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...१७ अर्थः-गौतमस्वामीने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! तीर्थ' संघरूप तीर्थको कहते हैं, या ' तीर्थ ' ' तीर्थकर ' को कहते हैं ? । भगवान्ने कहा:-अर्हन् , तीर्थकर ही कहे जाते हैं । और 'तीर्थ' तो 'चातुर्वर्णश्रमणसंघ' कहा जाता है । चातुर्वर्णश्रमणसंघ यह है:-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका। .. जब भगवान्का यह ' तीर्थ' इक्कीसहजार वर्ष पर्यन्त चलनेवाला है, तो फिर भीखमजीको, श्रीऋषभदेवभगवान्की तरह 'धर्मप्रवर्तक' कहना सरासर, सत्यविरुद्ध नहीं, तो और क्या
___ यहाँ तेरापंथी यह कहते हैं कि-"तीर्थ' नाम शासनका मालूम होता है । जो किसी समय साधु होवे, किसी समय न भी होवे ।" आधारके सिवाय, आधेयको रखनेवाले, तेरापंथियोंकी बुद्धिप्रभाको धन्य है। तेरापंथियोंने, इस विज्ञानविद्याका प्रकाशकर, बडे २ सायन्सवेत्ताओंकी विद्याओंको भी पराजित कर दिया ।
'तीर्थ' नाम है ' साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका ' का, जो कि ऊपर कहा गया है । और 'शासन' नाम है ' प्रवचन' का । 'साधु' आदि (तीर्थ) आधार हैं, और 'प्रवचन' आधेय है । अब विचारनेकी बात है कि-जब साधु आदि (तीर्थ) ही नहीं रहेगें, तो फिर — शासन' (प्रवचन ) किसके आधारसे रहेगा ? । और भगवान् तो कहते हैं कि मेरा 'तीर्थ' ( अर्थात् साधु-साध्वीश्रावक-श्राविका, ) इक्कीसहजार वर्ष पर्यन्त रहेगा, तो फिर तेरापंथी ऐसा कैसे कह सकते हैं कि, 'किसी समय साधु न भी होवे, और 'तीर्थ' रहे ?'। इस 'वन्ध्या पुत्र' जैसे नियमको कौन मानेगा । यह तो प्रत्यक्ष ही 'वदतो व्याघातः ' है कि