Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
आम्रवृक्ष नहीं उपज सकता है। बीज से ही सर्वत्र अंकुर और अंकुरसे ही बीज बनेगा । यह त्रिलोक त्रिकालमें अखण्ड सिद्धान्त है । कार्यकारण भावके अनुसार ही चमत्कार, अतिशय, बाजीगरी, ऋद्धि, सिद्धि, मंत्र, तंत्र, पिशाच क्रियायें, देवउपनीतपना, आदि सम्भवते हैं। कार्यकारणभावका भंग कर चमत्कार आदिक तीनों कालमें नहीं हो सकते हैं । यही जैन न्यायसिद्धान्त है ।
इस सूत्र का सारांश |
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इस सूत्र के लघु प्रकरणों का सूचन यों है कि प्रथम ही देवनारकियोंके अवधिज्ञानका बहिरंग कारण कथन करनेके लिए सूत्रका प्रतिपादन करना आवश्यक बताया है । आत्माका पर्याय होते हुये मी भव बहिरंग कारण है । जीवके पञ्च परावर्तनरूप संसार होने में सम्यक्त्व और चारित्र गुrat विभावपरिणतियां अन्तरंग कारण हैं। शेष गुणोंके परिणाम तो बहिरंगकारण या अकारण ही हैं । तथैव जीवको मोक्षप्राप्ति होने में सम्यक्त्व और चारित्र गुगके स्वभाब परिणाम अन्तरंगनिमित्त कारण हैं । शेष आत्मपिण्ड बहिरंग उपादानमात्र हैं । ज्ञान भी इतना प्रेरक निमित्त नहीं है । अस्तित्व, वस्तुत्व, आदिक अनन्तगुण के परिणाम तो मोक्ष होने में कैसे भी कारण नहीं हैं । उनके जाने भले ही आत्मा नरक निगोद में पडा सडता रहो । गौकी भूख मेटने में घास कारण है । घासको डालनेवाली युवती भूषण, श्रृंगार, वस्त्र, यौवन आदि तो उदासीन भी कारण नहीं । भवके बहिरंगपने का विचार कर उद्देश्य, विधेय दोनों दलोंमें क्रमसे एवकार लगाना अभीष्ट किया है । " चैत्रो धनुर्धरः " इस दृष्टान्तसे दोनों एवकारों को भले प्रकार समझाकर उनसे व्यवच्छेद करने योग्य पदार्थोंको बता दिया है। सभी अवधिज्ञानों में अन्तरंगकारण क्षयोपशमविशेष है । देवनारकि योंके अवधिज्ञान में साधारणरूपसे भव के एक होनेपर भी अन्तरंगकारणवश ज्ञानोंका भेद सिद्ध हो जाता है । कारणोंके भेद से ही कार्योंमें मेद आता है । अन्यथा नहीं । मिट्टीस्वरूप पुद्रलपरिणामसे
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बनता है, और पौगलिक तंतुओंसे पट बनता है। पुद्गलद्रव्यकी मृत्तिका और कपास पर्याय हो जाने में मी खानि या बनोला बीज आदिक निमित्त हैं । पुद्गलद्रव्यके उन निमित्तरूप उपादेयों के बनाने में भी उपादान पुगळकी सहायता करनेवाले द्रव्य, क्षेत्र आदिक निमित्त हैं । यो किसी किसी कारणमें अनेक और अनन्तकोटीतक कारणमाला जुटानी पडती है । उस जुटाने में भी निमित्त - कारण कचित् कार्योंमें तो कोई कोई ज्ञानवान् आत्मा अथवा बहुतसे कार्यों में व्यवहार काल ऋतु परिवर्तन, बीज, योनिस्थान, सूर्य, भूमि आदिक ही कारण बन बैठते हैं । किंतु जगत् के बहुतसे कार्योकी कारणमालाका छोर अनादिकाल नहीं है । मध्यमें ही द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावोंके अनुसार 1 कारण बन गये अनेक स्वभावोंद्वारा ही पांच, दस, दो, या एक कोटिपर ही कारणभेद हो जाने से कार्यभेद हो जाता है। दो चार सगे भाइयों का एक भी पिता हो पिता, पितामह, प्रपितामह, आदि असंख्य पीढिओंतक कारणमालाका चीर बढाते जाना अनिवार्य
सकता है । सभी कार्यों के
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