Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
कुतः पुनर्भवाभेदेऽपि देवनारकाणामवधिज्ञानावरणक्षयोपशमभेदः सिध्द्येत् इति चेत्, स्वशुद्धिभेदात् । सोऽपि जन्मान्तरोपपत्तिविशुद्धिभावात्, नाभेदात् । सोऽपि खकारणभेदात् । इति न पर्यनुयोगो विधेया कारणविशेषपरम्परायाः सर्वत्रापर्यनुयोगार्हत्वात् ।
यहां प्रश्न है कि भवका अभेद होनेपर भी फिर क्या कारण है कि जिससे देव और नारकियों के अवधिज्ञानावरणकर्म सम्बन्धी क्षयोपशमका भेद सिद्ध हो जावेगा ? इस प्रकार कहनेपर तो हम जैनसिद्धान्तियोंका यह उत्तर है कि अपनी अपनी आत्माओंकी शुद्धियां भिन्न भिन्न प्रकारको हैं। अतः उन शुद्धियोंके निमित्तले क्षयोपशमका भेद हो जाना सध जाता है। फिर कोई पूछे कि वह शुद्धियोंका भेद भी जीवोंके कैसे हो जाता है ! इसका समाधान यों समझना कि पूर्ववर्ती अनेक जन्मान्तरोंमें बनी हुयी विशुद्धियोंके सद्भाव रहनेसे संस्कारद्वारा अथवा अन्य बहिर्भूत कारणों की सामग्री जुटजानेसे तथा आत्माके पुरुषार्थसे जीवोंके भिन्न भिन्न शुद्धियां हो जाती हैं। अभिन्न कारणसे भिन्न भिन्न कार्योंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । कार्यभेद है, तो कारणमेद अवश्य होगा । जैनसिद्धान्तमें कार्यकारणभावकी पोल नहीं चल पाती है । वह विशुद्धि या पुरुषार्थ आदिके मेद भी अपने अपने कारणोंके भेदसे हो गये हैं। इस प्रकार पुनरपि प्रश्न उठानेपर उसके मी कारणमेदोंसे ही हुये कार्यभेदोंका ढकासा उत्तर दे दिया जायगा। अतः चारों ओरसे व्यर्थ प्रश्नपरम्परा उठाना कर्तव्य नहीं है। क्योंकि कारणविशेषोंकी परम्परा अनादिसे चली आ रही है । सम्पूर्ण वादियोंके यहां कारणोंकी विशेषतायें पर्यनुयोग चलानेके योग्य नहीं मानी गयी हैं। प्रत्येक पदार्थमें अनन्त खभाव हैं। एक ही अग्नि स्वकीय अनेक स्वभावोंके वश होकर दाह, पाक, शोषण, आदि कार्योको कर देती है । एक
आत्मा भिन्न भिन्न इच्छा, प्रयत्न आदि द्वारा एक समयमें अनेक कार्योंका सम्पादन कर रहा है। कुछ आत्माकी पर्यायें अपने पूर्ववर्ती कारणोंसे उन उन कार्योको करने योग्य पहिलेसे ही उत्पन्न हुई है । नित्य शक्तियोंकी पर्यायधारायें प्रवाहरूपसे तैसी उपजती हुई चली आ रही हैं। " स्वभावोऽतर्कगोचरः" । किसी जीवके पण्डित बनाने में उपयोगी विशेष क्षयोपशम पहिले जन्मोंसे चला आ रहा है और किसीके आत्मपुरुषार्थ द्वारा आवरणोंका विघटन हो आनेपर उस ही जन्ममें पाण्डित्य प्राप्त करनेका क्षयोपशम मिला लिया जाता है। फिर भी स्वभावमेदोंकी प्राप्तिमें जन्मान्तरके कुछ परिणाम भी उपयोगी हो जाय, इसका हम निषेध नहीं करते हैं । " यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकं स्वभावमेदाः परस्परं व्यावृत्ताः " अष्टसहस्री ग्रन्थमें विवरण कर दिया है कि जितने भी छोटे बड़े कार्य जगत्में होते हैं, उन सबके कारण एक दूसरेसे अलग हो रहे मिन पदार्थ या मिन भिन स्वभाव है । अन्यथा सर्वत्र सर्वदा अकस्मात् कार्य हो जानेके प्रसंगका निकरण कथमपि नहीं हो सकेगा। अतः यहां भी मिन्न मिन्न क्षयोपशमके न्यारे न्यारे कारणोंको कार्यमेदोंकी उपपत्ति अनुसार स्वीकार कर लेना चाहिये । स्वर्ग या भोगभूमिमें भी गुठिलीके विना