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परमात्मा परम लयबद्धता है
किसान दो-चार साल मेहनत करने के बाद खेत को खाली छोड़ देता है, बिना फसल के, ताकि खेत अपनी ऊर्जा को पुनः उपलब्ध कर ले। ऐसा मुझे भी लगता है कि सौ साल के लिए अगर आदमी को शिक्षा से स्वतंत्र कर दिया जाए तो लोग वापस उस अवस्था में पहुंच जाएंगे जिनकी लाओत्से चर्चा कर रहा है। लोग सरल हो जाएंगे; शोषण खो जाएगा। न पूंजीवाद की जरूरत होगी; न समाजवाद की जरूरत होगी। लोग थोड़े से तृप्त हो जाएंगे। और इतना काफी है कि हरेक को तृप्त कर सके। जल की कमी नहीं; भोजन की कमी नहीं; छाया मिल सकती है शरीर को।
लेकिन महत्वाकांक्षा के लिए तो कभी भी कुछ पूरा नहीं है। महत्वाकांक्षा दौड़ाती है, और दौड़ाती है; थकाती है, और मार डालती है। जीवन को जानने से वंचित ही रह जाते हैं।
'कारण है कि लोगों के लिए शांति में रहना कठिन है, अतिशय ज्ञान के चलते।'
जैसे ही ज्यादा ज्ञान हो जाता है, वैसे ही खुद की शांति भी खो जाती है। क्योंकि मन में विचार ही विचार भर जाते हैं। रात सोते भी हैं तो भी विचार चलते ही रहते हैं। उठते हैं तो चलते ही रहते हैं। विचारों का इतना झंझावात कि शांति खो जाती है; भीतर उतरना ही मुश्किल हो जाता है; नाव को ले जाना ही मुश्किल हो जाता है यात्रा पर।
और हमारी पूरी शक्ति इसमें लग रही है कि कैसे हम लोगों को ज्यादा ज्ञानी बना दें। और लोग जितने ज्ञानी होते जाते हैं उतने ही मुर्दा होते जाते हैं।
कभी ठेठ गांव में जाकर देखना चाहिए। ठेठ गांव से मेरा मतलब जहां अभी सरकार बिजली न पहुंचा पाई हो; जहां स्कूल न खोल पाई हो; जहां समाज-सुधारक अभी तक न पहुंचे हों और लोगों को शिक्षित न कर पाए हों; जहां नेतागणों की गति न हो पाई हो; और जहां क्रांतिकारियों की कोई खबर न पहुंची हो; कोई आदि-आदिमवासियों का गांव। तब एक दूसरे ही तरह के मनुष्य का दर्शन होता है। उसके शरीर का सौष्ठव अलग, उसके प्राणों का ढंग अलग, उसके जीने के नियम अलग।
बर्मा के जंगलों में अभी-अभी एक जाति के संबंध में कुछ मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। तो वे कहते हैं, उस जाति को याद ही नहीं है कि वहां किसी ने कभी सपना देखा हो। सपना नहीं देखा किसी ने! लोग इतने शांत हैं
कि सपना क्यों देखें? सपना तो अशांति का हिस्सा है। उस छोटे से कबीले में कभी कोई युद्ध नहीं हुआ, कोई झगड़ा · नहीं हुआ। कोई और ढंग होगा उनके होने का; क्योंकि हम तो दो घड़ी पास नहीं बैठ सकते और झगड़ा शुरू हो जाता है। और झगड़े हमारे इतने बारीक हैं कि कहना मुश्किल है।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसके गांव के धर्मगुरु में झंझट थी, और एक-दूसरे में कलह हो जाती थी। अंततः बात अदालत में पहुंच गई। और मजिस्ट्रेट ने कहा कि तुम दोनों ही समझदार आदमी हो; क्यों व्यर्थ के उत्पात खड़े कर लेते हो? इसको निपटा लो। और मैं नहीं चाहता कि तुम दोनों भले आदमियों को अदालत में आना पड़े और अदालत तक बात खींची जाए। तुम आपस में ही निपटा लो। धर्मगुरु ने कहा, ठीक। जब धर्मगुरु ने कहा ठीक तो नसरुद्दीन ने भी कहा, चलो ठीक। निकलने को हुए अदालत से बाहर कि नसरुद्दीन ने पूछा कि कहो, अब मेरे संबंध में क्या विचार हैं? ठीक से सुनना। नसरुद्दीन ने कहा कि कहो, अब मेरे संबंध में क्या विचार हैं? उस आदमी ने कहा, वही विचार हैं जो तुम्हारे मेरे संबंध में हैं। नसरुद्दीन लौटा और उसने कहा कि देखिए, फिर शुरू कर दिया इसने! नसरुद्दीन ने न्यायाधीश से कहा कि देखिए महानुभाव, फिर शुरू कर दिया इसने! क्योंकि मेरे खयाल तो इसके संबंध में बहुत बुरे हैं। और यह कह रहा है यही खयाल इसके मेरे संबंध में हैं। झगड़ा शुरू हो गया।
सभ्य आदमी जैसे बिना झगड़े के रह नहीं सकता। उसकी सब सभ्यता के भीतर, संस्कार के भीतर झगड़ा छिपा है। क्योंकि अशांत आदमी बिना झगड़े के रह कैसे सकता है? वह मैत्री भी करता है तो उसमें शत्रुता का दंश होता है। वह प्रेम भी करता है तो उसमें घृणा का जहर होता है। वह पास भी आता है तो दूर खिंचा रहता है।
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