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मुझसे भी सावधान रहना
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कहीं रुको मत। रुकना पाप है। बढ़ते जाना पुण्य है। पाप से भी गुजरो, लेकिन बढ़ते जाओ। और तुम अचानक पाओगे कि बढ़ते ही बढ़ते पाप पुण्य हो जाते हैं, पत्थर सीढ़ियां बन जाते हैं, बंधन मुक्ति हो जाती है। इसलिए ज्ञानियों ने, जैसा तिलोपा ने कहा, कि संसार और मोक्ष एक ही हैं। जिसने दो समझे वह भूल में पड़ गया; जिसने दो समझे वह चुनाव में पड़ गया। संसार में ही जो बढ़ता जाए, बढ़ता जाए, एक दिन अचानक पाता है मोक्ष आ गया।
तो मैं तुम्हें न तो निंदा करने को कहता हूं, न किसी चीज को पाप कहता हूं। कोई चीज पाप है नहीं । हो कैसे सकती है? इस विराट की लीला में पाप आएगा कहां से? तुम्हारी भूल होगी, बस इतना ही हो सकता है। तुमने कुछ गलत समझ कर ली होगी, तुमने कोई व्याख्या कर ली होगी। मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त करता हूं। बस इतना ही तुमसे कहता हूं कि कहीं रुकना मत। वेश्यागृह से भी गुजरना पड़े तो गुजरना; रुक मत जाना वहां । रुकने में भूल है, क्योंकि फिर मंदिर तक न पहुंच पाओगे।
और दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं जो पाप में रुक जाते हैं; उनको हम भोगी कहते हैं । और एक हैं जो पाप से डरकर भाग जाते हैं; उनको हम त्यागी कहते हैं। दोनों नहीं पहुंच पाते।
योगी मैं उसको कहता हूं जो न तो भागता और न रुकता; जो बढ़ता ही चला जाता है। हर अनुभव को जीता है, और हर अनुभव से सार निचोड़ लेता है। योगी तो मधुमक्खियों की भांति है, हर फूल से गुजरता है, चुन लेता है सार, उड़ जाता है।
जीवन के सभी पहलुओं को जानो । भय भी बुरा नहीं है, क्रोध भी बुरा नहीं है। बुरा है तुम्हारा रुक जाना । 'जानो और बढ़ जाओ। जानो और पार कर जाओ । अतिक्रमण तुम्हारा सूत्र हो, ट्रांसेंडेंस । हर चीज को जानना है और पार हो जाना है। जानते ही पार हो जाते हो । जानना अतिक्रमण है ।
लेकिन तुम अगर कहो कि बिना आंख खोले कैसे निपटा जाए ? तुम कभी न निपट सकोगे। क्योंकि आंख ही खोलना तो निपटने का उपाय है। कितना ही डर हो, खोलो आंख । आंख बंद करने से डर मिटता कहां है? लेकिन शुतुरमुर्ग का तर्क हमारे मन में है। देखता है दुश्मन को शुतुरमुर्ग, रेत में सिर गड़ा कर खड़ा हो जाता है। सोचता है, न दिखाई पड़ेगा दुश्मन, न रहेगा दुश्मन। पर यह तर्क कहीं काम आता है ? दुश्मन को तो तुम दिखाई पड़ ही रहे हो। असली सवाल तो वह है। दुश्मन तुम्हें खा जाएगा। शुतुरमुर्ग अगर सिर ऊपर रखता तो शायद कोई रास्ता भी खोल लेता ।
शुतुरमुर्ग मत बनो। आंख खोलो और देखो। कुछ भयावह नहीं है, क्योंकि कुछ बुरा नहीं है। क्योंकि कुछ बुरा हो नहीं सकता है। एक-एक पत्ते पर परमात्मा का हस्ताक्षर है। बुरा कुछ हो नहीं सकता है। पाप में भी वही छिपा है। बड़ा अनूठा खिलाड़ी है कि पाप में भी छिपा है ! वह छिपने की जगह है उसकी, आड़ है। जैसे बच्चे आंख-मिचौनी खेलते हैं तो वहीं छिपते हैं जहां कम से कम संभावना हो पकड़ने की । परमात्मा भी वहीं छिपा है जहां कम से कम संभावना है तुम्हारे जाने की। मंदिर तुम जाओगे उसे खोजने, तुम उसे न पाओगे। मंदिर में वह छिपा नहीं है। तुम जहां से बच रहे हो वहीं वह छिपा है। वहीं थोड़े खोदने की जरूरत है । जिन्होंने भी उसे पाया है उन्होंने उसे संसार की गहनता में पाया है, सब अनुभवों से गुजर कर पाया है।
भगोड़े मत बनो। भागना कहीं नहीं है। जहां-जहां तुम्हें लगता हो कि यहां कैसे हो सकता है, मैं तुमसे कहता हूं, वहीं है। तुम कैसे सोच सकते हो कि क्रोध में और करुणा हो सकती है? लेकिन वहीं है। तुम कैसे सोच सकते हो कि कामवासना में ब्रह्मचर्य हो सकता है ? वहीं है । और तुम कैसे सोच सकते हो कि संसार में संबोधि छिपी होगी ? वहीं है ।