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ताओ उपनिषद भाग ६
इसे खंयाल में रखोगे तो दुविधा न पड़ेगी। कोई कृष्ण में और महावीर में भेद नहीं है; परिस्थिति में भेद है। और इसलिए कृष्ण और महावीर को मानने वाले व्यर्थ का विवाद करते रहे हैं। परिस्थिति दोनों की भिन्न है। महावीर कह रहे हैं कि मांस मत खाओ, क्योंकि मांस खाना या न खाना दो विकल्प हैं। महावीर कह रहे हैं, देख कर चलो, क्योंकि चींटी व्यर्थ दबा कर मर जाए पैर के नीचे; बचाई जा सकती है तो क्यों मारते हो?
महावीर ने जो परिस्थिति चुनी है मनुष्य के लिए वह साधक की है। वे संन्यासी से बात कर रहे हैं। अगर महावीर खड़े होते कृष्ण की जगह तो जो सलाह कृष्ण ने दी है, मैं कहता हूं कि वही सलाह महावीर ने दी होती। क्योंकि कोई और उपाय न था; वह परिस्थिति साफ थी। लेकिन महावीर वहां नहीं थे; महावीर की परिस्थिति और थी। महावीर किसी युद्ध के मैदान पर नहीं खड़े थे। महावीर संन्यस्त हैं, उन्होंने संसार छोड़ दिया है। वे जो सलाह दे रहे हैं वह संन्यासी को दे रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं कि तू अहिंसा की तरफ बढ़ और हिंसा को छोड़, क्योंकि हिंसा से हिंसा ही पैदा होती है। लेकिन महावीर क्या करते कृष्ण की स्थिति में? या तो वे कह देते मैं सलाह नहीं देता, जो कि उचित न होता; और या वे वही सलाह देते जो कृष्ण ने दी है।
कई बार मैंने इस बात को सोचा है कि अगर परिस्थिति वही हो और ज्ञानी बदल दिया जाए तो क्या ज्ञानी दूसरी सलाह दे सकेगा? और मैंने बहुत सोच कर यही पाया है कि असंभव है! ज्ञानी वही सलाह देगा, क्योंकि कोई उपाय ही नहीं है। अगर महावीर होते अरब में और हिंदुस्तान में नहीं क्योंकि हिंदुस्तान की हवा और, हिंदुस्तान की बात
और। हजारों-हजारों साल की अहिंसा का शिक्षण है इस मुल्क के पास। ठीक वेदों से लेकर, और महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं, उनके पहले तेईस महान विराट पुरुषों ने अहिंसा के फूल बिछाए हैं; एक धारा है; पीछे से आता एक महान प्रवाह है! उस प्रवाह के कारण पूरे मुल्क में अहिंसा की भाषा को समझने की क्षमता है। तो महावीर यह बात कह सके। मोहम्मद के पीछे कोई प्रवाह नहीं है। मोहम्मद पहले हैं; महावीर आखिरी हैं। एक बड़ी धारा के महावीर आखिरी पुरुष हैं। और मोहम्मद एक बड़ी धारा के पहले पुरुष हैं। बड़ा फर्क है। फिर अरब, जहां सिवाय जंगली, खूखार लोगों के और कोई भी नहीं; जिनके पास न कोई संस्कृति है, न कोई सभ्यता है; जिनके पास कोई अतीत नहीं है; जिनकी अतीत में कोई जड़ें नहीं हैं, जिनके पीछे कोई इतिहास नहीं है; जो बिलकुल असंस्कृत हैं। इन आदमियों से अगर तुम अहिंसा की बात करते तो तुम ही मूढ़ सिद्ध होते। क्योंकि इनसे बात ही नहीं की जा सकती; अहिंसा का कोई अर्थ ही नहीं होता। हिंसा एकमात्र बात थी जिसे वे समझ सकते थे।
तो मोहम्मद ने उन्हें समझाने की चेष्टा स्वभावतः उन्हीं की भाषा में की, और कोई उपाय नहीं था। तो मोहम्मद ने भी तलवार उठाई। लेकिन तलवार पर मोहम्मद ने लिख रखा थाः शांति मेरा संदेश है। यह तलवार की भाषा से शांति समझाने का उपाय है। कोई और रास्ता नहीं था। तो तलवार पर लिखना पड़ा है बेचारे मोहम्मद को अपना संदेश कि शांति मेरा संदेश है। इसलाम शब्द का अर्थ होता है शांति। शांति भी समझानी पड़ी तो तलवार से। क्योंकि जो समझने वाले थे उन पर सब निर्भर करता है।
आखिर जब मैं तुम्हें समझाता हूं तो तुम्हारी ही भाषा में बोलना पड़ेगा, और तो कोई उपाय नहीं है। या मैं अपनी भाषा बोलता रहूं, जिस भाषा को तुम समझते ही नहीं, तो मैं पागल हूं। महावीर अगर मोहम्मद की जगह होते, वही तलवार महावीर के हाथ में होती और वही संदेश होता कि शांति मेरा संदेश है। और मोहम्मद अगर भारत में पैदा होते महावीर के समय में, तो वे चौबीसवें तीर्थंकर हो जाते। कोई बचने का उपाय न था।
लेकिन परिस्थिति बदल जाती है रोज। और परिस्थिति तय करती है कि क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए; कहां तक लोग बढ़ सकेंगे, कहां तक लोग जा सकेंगे; कितने दर तक लोगों की चेतना को खींचा जा सकता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि जो हम कहें, वह लोगों को असंभव मालूम पड़े, इसलिए वे उसकी बात ही छोड़ दें।
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