Book Title: Tao Upnishad Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 380
________________ ताओ उपनिषद भाग६ क्या तुम डाक्टर के पास जाते हो कि जरा जांच करके बताओ, मेरे सिर में दर्द है या नहीं? जब नहीं होता तब तुम जानते हो; जब होता है तब भी तुम जानते हो। सारी दुनिया भी कहे कि तुम्हारे सिर में दर्द नहीं है और तुम्हें हो रहा है, तो क्या फर्क पड़ेगा उस प्रमाण से? तुम्हें हो रहा है, सारी दुनिया कहती रहे कि नहीं हो रहा है, इससे क्या फर्क पड़ रहा है? कौन जान सकता है तुम्हारे सिर के दर्द को सिवाय तुम्हारे? कोई भी नहीं जान सकता। तुम्हारा सिर, तुम्हारा दर्द! और क्या इसकी कोई परीक्षा करनी पड़ती है, जांच करनी पड़ती है कि हो रहा है कि नहीं हो रहा? जब वासना तुम्हारे मन में होती है तो क्या पूछना पड़ता है किसी से कि वासना है या नहीं? किया तो तंत्र का प्रयोग, लेकिन व्याख्या अपनी करके उसको भी खराब कर लिया। गांधी ब्रह्मचर्य के संबंध में असफल मरे। लेकिन इसमें गांधी का कोई कसूर नहीं है। गांधी ने मेहनत पूरी की; रास्ता गलत था। गांधी का श्रम पजा योग्य है, लेकिन दिशा भ्रांत थी। जाना था पूरब, चल पड़े पश्चिम। दौड़े बहुत, थका डाला; कुछ उठा न रखा, सब किया जो करना था, लेकिन दिशा ही गलत थी। लाओत्से निसर्ग को स्वीकार करके बढ़ता है। वह तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हें कोई आदर्श पुरुष होना है; वह तुमसे कहता है कि तुम साधारण हो जाओ, बस काफी है। असाधारण नहीं, तुम बस साधारण हो जाओ। तुम इतने साधारण हो जाओ कि न किसी को तुम्हारी खबर रहे, न तुम्हें किसी की खबर रहे। तुम जीवन में ऐसे साधारण हो जाओ कि तुम्हारे जीवन में कोई कलह और संघर्ष न रहे। प्यास लगे तो पानी पीओ। और जब प्यास लगे तो क्या जरूरत है अस्वाद से पानी पीने की? पूरे स्वाद से पीओ! लेकिन स्वाद को परमात्मा के प्रति धन्यवाद.बना लो, अहोभाव बना लो। भोजन ही करना है तो स्वाद से करो! ध्यान रहे, धर्मगुरु लोगों को समझाते हैं कि भोजन में स्वाद लेना पशुओं जैसा है। वे बिलकुल गलत कहते हैं। पशु तो भोजन में स्वाद लेते ही नहीं, सिर्फ मनुष्य लेता है। वह मनुष्य की गरिमा है और ऊंचाई है। पशु तो भोजन में स्वाद लेते ही नहीं। पशुओं का भोजन तो बिलकुल यांत्रिक है। तुम एक भैंस को छोड़ दो। उसका बंधा हुई घास है, वह वही घास चुन-चुन कर खा लेगी, दूसरे घास को छोड़ देगी। भैंस स्वाद लेती है? कभी भूल कर मत सोचना। कोई जानवर भोजन में स्वाद नहीं लेता। भोजन करता है, बिलकुल अस्वाद से करता है; स्वाद का कोई सवाल ही नहीं है। इसलिए तो जानवर एक ही भोजन को सतत करते रहते हैं, कभी परिवर्तन नहीं करते। स्वाद जहां भी होगा वहां परिवर्तन होगा। क्योंकि एक ही स्वाद अगर तुम रोज-रोज लेते रहोगे तो ऊब जाओगे। भैंस कभी नहीं ऊबती; साफ है कि उसे कोई स्वाद नहीं है। तुम एक ही सब्जी रोज खाकर देखो-आज अच्छी लगेगी, कल साधारण हो जाएगी, परसों ऊब आने लगेगी, चौथे दिन तुम थाली पटक दोगे उठा कर पत्नी के सिर पर कि बहुत हो गया। स्वाद का अर्थ ही होता है परिवर्तन। पशु परिवर्तन नहीं करते, इसलिए जाहिर है कि उनको स्वाद का कोई सवाल नहीं है। भोजन! तो पशु तो अस्वाद व्रत को उपलब्ध हैं; सिर्फ आदमी के जीवन में स्वाद उठा है। तुमने कभी देखा पशुओं को संभोग करते? उनको कोई रस नहीं आता। दो पशुओं को तुम कभी भी संभोग करते देखो, तुम उनमें कोई रस न पाओगे। वे संभोग यंत्रवत करते हैं जैसे कोई मजबूरी है, करना पड़ रहा है। और संभोग करने के बाद तुम उनके चेहरे पर कोई शांति न पाओगे; न कोई आनंद का भाव पाओगे। संभोग कर लिया, निपट गए, चल पड़े अपने-अपने रास्ते पर। सिर्फ मनुष्य संभोग में स्वाद ले सकता है; भोजन में स्वाद ले सकता है; गंध में स्वाद ले सकता है। पशुओं को गंध तो आती है मनुष्य से ज्यादा, लेकिन गंध में स्वाद नहीं है। तुमने किसी पक्षी को फूल को खोंसे हुए देखा है? कि किसी भैंस को कि फूल को पास लेकर गंध ले रही है? पशुओं की गंध की शक्ति तीव्र है, वे मील भर दूर से भी गंध ले लेते हैं, लेकिन गंध में कोई स्वाद नहीं है। पशु बिलकुल अस्वाद में जीते हैं। 370

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