________________
परमात्मा का आशीर्वाद बरस रहा है
देते हो कि ईश्वर है, तुम ईश्वर को अदालत में खड़ा कर दिए। अब नास्तिक भी तर्क दे सकता है, बड़े तर्क दे सकता है। कभी तुमने सुना कि कोई आस्तिक किसी नास्तिक को तर्क से आस्तिक बना पाया हो? या कभी कोई नास्तिक किसी आस्तिक को तर्क से नास्तिक बना पाया हो?
तर्क से बदलाहट होती ही नहीं, हृदय अछूता रह जाता है। सारी बदलाहट हृदय की है, भाव की है। तुम्हारा हृदय प्रेम से जीता जाता है, तर्क से नहीं। तर्क तो तुम्हारे हृदय के पास भी न पहुंच पाएगा, फटक भी न पाएगा पास। सज्जन तुम्हें जीतता है अपने होने से। उसका व्यक्तित्व ही उसका एकमात्र तर्क है। उसका होना ही एकमात्र प्रमाण है।
मेस्टर एकहार्ट हुआ, जर्मनी का एक बहुत बड़ा रहस्यवादी संत। एक तर्कनिष्ठ पंडित उसके पास गया और उसने कहा, एकहार्ट, मैंने सुना है कि तुम ईश्वर में भरोसा करते हो। तुम मेरे सामने सिद्ध करो, मैं तुम्हें चुनौती देता हूं! एकहार्ट ने कहा, चुनौती हम स्वीकार करते हैं, लेकिन हमारे सिद्ध करने के ढंग अलग-अलग हैं। तुम बातचीत करोगे, मैं मौन बैलूंगा; तुम बुद्धि का फैलाव करोगे, मैं हृदय को बहाऊंगा। तो कह नहीं सकता कि हमारा मेल कहीं हो पाएगा कि नहीं हो पाएगा। क्योंकि हम अलग-अलग तरह के लोग हैं। मेरा होना ही प्रमाण है ईश्वर का। मेरी तरफ देखो! मेरी आंखों में झांको! क्या तुम्हें मेरी आंखों में वैसी झील दिखाई पड़ती है जिसका कोई अंत न हो? अगर दिखाई पड़ती है तो परमात्मा के बिना यह कैसे हो सकता है? मेरे पास आओ। मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लो। अनुभव करो। क्या कोई प्रेम तुम्हारी तरफ बह रहा है अकारण? अगर अनुभव कर सको तो बिना परमात्मा के यह कैसे हो सकता है? मैं प्रार्थना करने बैलूंगा। तुम बैठो, देखो, आंख से अपूर्व आंसू बहते हैं आनंद के। तुम मेरे आंसुओं को समझो। क्या बिना गहन प्रेम के यह संभव है? क्या बिना गहरी विरह-वेदना के यह संभव है? अगर परमात्मा न हो तो इतने विराट प्रेम की प्यास मुझमें कैसे हो सकती है? तुम मुझे जानो, शायद तुम पहचान लो। लेकिन तर्क मेरे पास कोई भी नहीं। मैं ही तर्क हूं।
संत स्वयं तर्क है। और जो संत को समझ सकते हैं उनके लिए परमात्मा एक सिद्धांत हो जाता है। क्योंकि संत ही असंभव है बिना परमात्मा के। संत प्रमाण हो जाता है। संत इस पृथ्वी के गहन अंधकार में उस महा-प्रकाशवान
की छोटी सी किरण है। माना कि मिट्टी का दीया है, मगर ज्योति उसी परमात्मा की है। और अगर तुम मिट्टी के दीये · में जलती ज्योति को पहचान लो तो आकाश के महासूर्यों में भरोसा आ जाएगा।
लेकिन संत विवाद नहीं करता। विवाद तो हिंसा है, असज्जन का लक्षण है। विवाद जबरदस्ती है तुम्हें दबाने की। विवाद हिंसात्मक आक्रमण है तुम्हारे ऊपर। विवाद का अर्थ है कि मैं सिद्ध करके रहूंगा और तुम्हें झुकना पड़ेगा। विवाद तलवार है, सूक्ष्म, शब्दों की, तर्क की, लेकिन है तलवार। और तुम विवाद के सामने अगर झुक गए, अगर तुमने ऐसे तर्क मान लिए जिन्हें तुम्हारा हृदय इनकार करता था तो तुम भटक जाओगे। तुम आस्तिक भी हो सकते हो तर्क मान कर, तब भी तुम आस्तिक न हो पाओगे। क्योंकि आस्तिकता का कोई संबंध ही तर्क से नहीं है। तुम नास्तिक भी हो सकते हो। दोनों बराबर हैं। आस्तिक और नास्तिक में जरा भी फर्क नहीं है। अगर तुमने तर्क के कारण, विचार के कारण आस्तिकता और नास्तिकता को चुन लिया, तुम में कोई बहुत फर्क नहीं है। तुम एक ही नदी के दो किनारे हो।
फर्क तो उस आदमी में है जिसने तर्क के कचरे को एक तरफ फेंक दिया, और हृदय की पुकार सुनी, आह्वान सुना अपनी ही गहराइयों का। धरातल पर, सतह पर जो हो रहा था उसकी चिंता छोड़ दी विचार की तरंगों की, गहन में उतरा, भीतर की पुकार सुनी, और उस भीतर की पुकार के सहारे चलने लगा। वही आस्तिक है। लेकिन उसको आस्तिक कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वह नास्तिक के विरोध में नहीं है। वस्तुतः वह आस्तिकता-नास्तिकता के पार हो गया, क्योंकि तर्क के पार हो गया।
393