Book Title: Tao Upnishad Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 418
________________ ताओ उपनिषद भाग ६ इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम मंदिर है। लेकिन तैयार मंदिर नहीं है। एक-एक कदम तुम्हें तैयार करना पड़ेगा। रास्ता पहले से पटा-पटाया तैयार नहीं है, कोई राजपथ है नहीं कि तुम चल जाओ। चलोगे एक-एक कदम और चल-चल कर रास्ता बनेगा-पगडंडी जैसा। खुद ही बनाओगे, खुद ही चलोगे। इसलिए मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूं, मैं प्रेम के पक्ष में हूं। और तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि अगर प्रेम ने तुम्हें दुख में उतार दिया हो तो अपनी भूल स्वीकार करना, प्रेम की नहीं। क्योंकि बड़ा खतरा है अगर तुमने प्रेम की भूल स्वीकार कर ली। तो यह मैं जानता हूं कि तुम साधु-संतों की बातों में पड़ कर छोड़ दे सकते हो प्रेम का मार्ग, क्योंकि वहां तुमने दुख पाया है। तुम थोड़े सुखी भी हो जाओगे; लेकिन आनंद की वर्षा तुम पर फिर कभी न हो पाएगी। कैसे तुम चढ़ोगे? तुम सीढ़ी ही छोड़ आए! गिरने के डर से तुम सीढ़ी से ही उतर आए। चढ़ोगे कैसे? गिरोगे नहीं, यह तो पक्का है। जिसको हम सांसारिक कहते हैं, गृहस्थ कहते हैं, वह गिरता है सीढ़ी से; जिसको हम संन्यासी कहते हैं पुरानी परंपरा-धारणा से, वह सीढ़ी छोड़ कर भाग गया। मैं उसको संन्यासी कहता हूं जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा; अपने को बदलना शुरू किया, और जिसने प्रेम से ही, प्रेम की घाढ़ी से ही धीरे-धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की। कठिन है। जीवन की संपदा मुफ्त नहीं मिलती; कुछ चुकाना पड़ेगा; अपने से ही पूरा चुकाना पड़ेगा; अपने को ही दांव पर लगाना पड़ेगा। और प्रेम जितनी कसौटी मांगता है, कोई चीज कसौटी नहीं मांगती। इसलिए कमजोर भाग जाते हैं। और भाग कर कोई कहीं नहीं पहुंचता। प्रेम के द्वार से गुजरना ही होगा। हां, उसके पार जाना है, वहीं रुक नहीं जाना है। वह सिर्फ द्वार है। जापान में एक मंदिर है वैसे ही सब मंदिर होने चाहिए-वह मंदिर सिर्फ एक द्वार है। उसमें कोई दीवाल नहीं है और भीतर कुछ भी नहीं है; सिर्फ एक द्वार है। मंदिर एक द्वार है; किसी अज्ञात लोक की तरफ खुलता है; अतीत पीछे छूट जाता है, भविष्य की तरफ खुलता है; समय पीछे छूट जाता है, कालातीत की तरफ खुलता है; क्षुद्र, क्षणभंगुर पीछे छूट जाता है, शाश्वत के प्रति खुलता है। लेकिन सिर्फ एक द्वार है। जो मंदिर में रुक गया वह नासमझ है। मंदिर कोई रुकने की जगह नहीं; पड़ाव कर लेना, रात भर के लिए विश्राम कर लेना, लेकिन सुबह यात्रा पर निकल जाना है। प्रेम को कैसे मंदिर बनाओगे? आधिपत्य मत करना जिससे प्रेम करो। जिससे प्रेम करो उस प्रेम के आस-पास ईर्ष्या को खड़े मत होने देना। जिसको प्रेम करो उससे अपेक्षा मत करना कुछ; दे सको, देना, मांगना मत। और तुम पाओगे, प्रेम रोज गहरा होता है, रोज ऊपर उठता है। और तुम पाओगे कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे नये पंख उगने लगे तुम्हारे जीवन में; चेतना नयी यात्रा पर जाने के लिए समर्थ होने लगी। लेकिन इन भूलों के प्रति सजग रहना। ये भूलें बिलकुल सामान्य हैं और तुम प्रेम में पड़ते भी नहीं कि ये भूलें शुरू हो जाती हैं। तुम अपेक्षा शुरू कर देते हो। जहां अपेक्षा की वहां सौदा शुरू हो गया; प्रेम न रहा। तुम जिसको प्रेम करो, उसे स्वयं होने की पूरी स्वतंत्रता देना। कई बार मौके होंगे, बहुत सी बातें होंगी जो तुम न चाहोगे। लेकिन तुम्हारी चाह का सवाल क्या है? दूसरा व्यक्ति पूरा व्यक्ति है अपनी निजता में; तुम हो कौन? वह जैसा है तुम उसे प्रेम करने के अधिकारी हो, लेकिन तुम उसे काट-छांट मत करना। तुम यह मत कहना कि तू ऐसा हो जा, तब हम तुझे प्रेम करेंगे। एक महिला मेरे पास आती है। प्रेम-विवाह किया था, लेकिन एक छोटी सी बात पर सब नष्ट हो गया कि पति सिगरेट पीते हैं। वह यह बरदाश्त नहीं कर सकती; उनके मुंह से बास आती है। रात उनके साथ सो नहीं सकती; दूसरे कमरे में पति सोते हैं। बीस साल इस छोटी सी बात की कलह में बीत गए हैं कि पति पर जिद्द है कि वह सिगरेट 408

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