Book Title: Tao Upnishad Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 427
________________ प्रेम और प्रेम में भेद तुम्हारे कल्पवृक्ष तुम्हें नरक में ही ले जाएंगे, क्योंकि तुम्हारे कल्पवृक्षों की तलाश ने ही तो तुम्हारे संसार को नरक बना दिया है। तुम्हारा संसार संसार के कारण थोड़े ही नरक है; तुम्हारी वासनाओं के कारण नरक है। वासनारहित होकर जब इसी संसार को कोई देखता है तो परमात्मा को विराजमान पाता है। सब जगह उसी का हस्ताक्षर, उसी के पदचिह्न; पत्ते-पत्ते में वही, कण-कण में वही, हर जगह वही, अनेक रूपों में वही रूपायित, हर आकार में वही निराकार। यह तो तुम्हारी वासना के कारण संसार नरक हो गया है। संसार के कारण संसार नरक नहीं है। संसार तो मोक्ष है। तुम हो नरक का सूत्र। अधूरे टूट गए, तो तुम जहां भी जाओगे वहीं संसार बना लोगे। ___ मैंने सुना है। एक सूफी कहानी है। एक आदमी था। गांव के लोग उसको बुद्ध समझते थे, इसलिए उसका नाम बेवकूफ रख लिया था। और वह धीरे-धीरे आदी हो गया था; गांवों में ऐसा अक्सर हो जाता है। बेवकूफ ही उनका नाम हो गया था। और उनकी पत्नी का नाम फजीती था। फजीती, उपद्रव। और बेवकूफ की पत्नी होएगी ही फजीती। इसमें कोई, बिलकुल बात तर्कयुक्त मालूम पड़ती है। एक दफा फजीती से बेवकूफ का झगड़ा हो गया और फजीती भाग गई। तो उसे खोजने निकला। बड़ी मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि बेवकूफ बिना फजीती के रह भी नहीं सकता। फजीती के साथ भी नहीं रह सकता बेवकूफ और बिना फजीती के भी नहीं रह सकता। तुम्हें भी पता है। पत्नी के बिना भी नहीं रह सकते हो और पत्नी के साथ भी नहीं रह सकते हो। यही तो फजीता है। खोजते हुए एक सूफी फकीर के पास पहुंच गया। और उसने कहा कि महाराज, यहां मेरी पत्नी को तो नहीं देखा? उसने पूछा, तुम हो कौन? उसने कहा कि मेरा नाम बेवकूफ है और मेरी पत्नी का नाम फजीती है, और वह घर छोड़ कर भाग गई है। उस सूफी फकीर ने कहा, नासमझ, बेवकूफ अगर पक्का है तो फजीती कहीं भी मिल जाएगी। त फिक्र क्यों कर रहा है? तो संसार तुम्हें कहीं भी मिल जाएगा। तुम फिक्र क्या कर रहे हो? आश्रम में मिल जाएगा, हिमालय पर मिल जाएगा। बेवकूफ होना जरूरी है, फजीती कहीं भी मिल जाएगी। संसार भरा है फजीतियों से; इसमें कहीं खोजने की जरूरत है? कहां भटक रहा है? तू सिर्फ बैठ जा, फजीती खुद आएगी। बेवकूफ होना पर्याप्त है। इसलिए तुम संसार को छोड़ कर न भाग सकोगे; तुम जहां जाओगे वहीं संसार आ जाएगा। पक कर ही कोई क्रांति घटती है; कच्चे तो तुम नासमझ ही रहोगे। इसलिए कहता हूं, देर न करो; पको। अनुभव में जाओ। प्रत्येक चीज को होश से जीओ। और धीरे-धीरे तुम खुद ही देख लोगे, इस संसार में न तो कुछ पकड़ने योग्य है, न कुछ छोड़ने योग्य है। - इस बात को मैं फिर से दोहरा दूं। अगर तुम कच्चे हो तो तुम समझोगे, संसार में कुछ छोड़ने योग्य है। अगर तुम पके हो तो तुम पाओगे, न तो कुछ पकड़ने योग्य है, न कुछ छोड़ने योग्य है। त्याग करने योग्य भी क्या है यहां? जब भोग करने योग्य ही कुछ नहीं है तो त्याग करने योग्य भी कुछ नहीं है। तो जो आदमी भोग के विपरीत त्याग करता है उसकी नासमझी बदलती नहीं। जिसके लिए भोग और त्याग दोनों व्यर्थ हो जाते हैं, न पकड़ने योग्य, न छोड़ने योग्य। यहां संपदा ही नहीं है, पकड़ोगे क्या और छोड़ोगे क्या? त्याग भी अज्ञानी करता है, भोग भी अज्ञानी करता है; ज्ञानी तो सिर्फ जाग जाता है और पाता है कि भोग-त्याग दोनों सपने के हिस्से थे, गहरी निद्रा में घटते थे, जागने पर नहीं घटते हैं। ज्ञानी तो सिर्फ जीता है; न भोगता, न त्यागता। ज्ञानी तो साक्षी होता है, न तो भोक्ता बनता और न त्यागी बनता, कर्ता नहीं बनता। कर्ता ही तो अज्ञानी होना है। लाओत्से और मेरी बात में कोई विरोध नहीं है। लाओत्से वह बात कह रहा है जो तुम्हारे बहुत काम की नहीं है। मैं वह बात कह रहा हूं जो तुम्हारे काम की है। बातें दोनों सही हैं : अति पर क्रांति घटित होती है। 417

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