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परमात्मा का आशीर्वाद बरस रहा है
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उसको गंवाने को वे राजी नहीं। दूसरे के लिए जीते हैं, क्योंकि उन्होंने यह जाना कि जितना तुम दूसरे के लिए जीते हो उतना ही तुम्हारा जीवन परमात्ममय होता जाता है। परमात्मा अपने लिए नहीं जीता, इसीलिए तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। कभी वृक्ष के लिए जीता है तो वृक्ष दिखाई पड़ता है; कभी झरने के लिए जीता है तो झरना दिखाई पड़ता है; कभी फूल के लिए जीता है तो फूल खिल जाता है; कभी आदमी के लिए जीता है तो आदमी प्रकट होता है। परमात्मा तुम सीधा कहीं न पा सकोगे, क्योंकि वह अपने लिए जीता ही नहीं ।
इसीलिए तो मुसीबत है। नास्तिक पूछता है, कहां है? दर्शन करवा दो!
उसका दर्शन नहीं करवाया जा सकता। अगर वह अपने लिए जीता होता तो उसका पता-ठिकाना अब तक हमने लगा लिया होता - कहां रहता है? क्या करता है? वह जीता है सबके लिए; जीता है सब में । सब होकर जीता है। उसका अपना अलग होना नहीं है; फूल में, पत्ते में, पहाड़ में, चांद-तारों में, जहां है वही है।
जिस दिन तुम समझोगे इस राज को कि परमात्मा सब में जी रहा है उस दिन तुम पाओगे कि संत होने की एक कला है कि तुम भी सब में जीना शुरू कर दो। जितना जितना तुम अपने में कम जीओगे, उतना ही उतना पाओगे महाजीवन तुम पर उतरने लगा ।
दूसरों के लिए जीते हैं; स्वयं समृद्ध होते चले जाते हैं लेकिन संग्रह नहीं करते, जीते हैं दूसरे के लिए, और स्वयं समृद्ध होते चले जाते हैं।
यह समृद्धि, जिसे तुम समृद्धि कहते हो, वह नहीं है। और तुम जिसे समृद्धि कहते हो उसे संत समृद्धि कहते ही नहीं । तुम्हारी संपत्ति को संत विपत्ति कहते हैं । तुम्हारी संपदा विपदा है। संत एक भीतरी समृद्धि से जीता है। उसकी प्रचुरता आंतरिक है। वह भीतर से भरा हुआ जीता है। आपूर, ऊपर से बहता हुआ जीता है। उसकी संपदा आंतरिक है । और जितना ही वह बांटता है, यह संपदा बढ़ती जाती है। बाहर की संपदा को बांटो, घटेगी; भीतर की संपदा को रोको, घटेगी। बाहर की संपदा को बांटो, समाप्त हो जाएगी; भीतर की संपदा को बांटो, बढ़ती चली जाएगी।
'दूसरों को दान देते हैं, और स्वयं बढ़ती प्रचुरता को उपलब्ध होते हैं। स्वर्ग का ताओ आशीर्वाद देता है, लेकिन हानि नहीं करता। संत का ढंग संपन्न करता है, लेकिन संघर्ष नहीं करता।'
वह जो परमात्मा का आत्यंतिक नियम है ताओ, ऋत, वह आशीर्वाद देता है, हानि नहीं करता। और अगर हानि होती है तो तुम्हारे अपने कारण होती है। तुम आशीर्वाद को भी अभिशाप में बदलने में बड़े कुशल हो। तुम अभिशाप को भी झेलते हो और आशीर्वाद को भी अभिशाप बना लेते हो। लेकिन परमात्मा की तरफ से कोई अभिशाप नहीं आता। अगर तुम्हारा जीवन अभिशप्त हो तो समझ लेना कि तुम परमात्मा के विपरीत जी रहे हो, तुम अपने ढंग से जीने की कोशिश कर रहे हो, तुम संघर्ष कर रहे हो, और तुम्हारे भीतर एक रेसिस्टेंस है, तुम परमात्मा की धारा में बह नहीं रहे।
लाओत्से से किसी ने पूछा कि परमात्मा को पाया, सत्य को, ताओ को, कैसे? कैसे तुझे बोध हुआ? तो कहते हैं, लाओत्से ने कहा कि मैंने एक वृक्ष के ऊपर से एक सूखे पत्ते को गिरते देखा ।
पतझड़ के दिन रहे होंगे, लाओत्से टिका बैठा रहा होगा वृक्ष से, शांत, मौन देखता रहा होगा प्रकृति को । टूटा एक पत्ता वृक्ष से, गिरने लगा नीचे। हवा ने कभी उसे बाएं उड़ाया तो बाएं चला गया, हवा ने कभी दाएं झुकाया तो दाएं झुक गया। पत्ते ने कोई संघर्ष न किया, वह हवा से लड़ा ही नहीं । वृक्ष से टूटने के समय भी उसने कोई जिद न की कि मैं जुड़ा ही रहूं; चुपचाप टूट गया। पीछे उसने घाव भी न छोड़ा वृक्ष में। शायद वृक्ष को पता भी न चला हो कि कब सूखा पत्ता जराजीर्ण पुराना होकर गिर गया, पक गया और गिर गया। हवा ने नीचे गिरा दिया तो पत्ता जमीन पर पड़ गया; फिर हवा का झोंका आया तो पत्ता आकाश में उड़ गया।