________________
राज्य छोटा और निसर्गोठमुन्य छो
पुराने दिनों में आदमी सुंदर पोशाक पहनते थे, थोड़ा-बहुत आभूषण भी पहनते थे। शानदार दुनिया थी। फिर बात बदल गई। आदमी नहीं पहनते अब शानदार पोशाक; औरतें पहनती हैं। यह अप्राकृतिक है। क्योंकि स्त्री तो अपने आप में सुंदर है। उसके लिए सुंदर पोशाक की जरूरत नहीं है। प्रकृति में देखो। मोर के पंख हैं; मादा मोर के पंख नहीं हैं। वह नर है जो पंख फैलाता है। जो कोयल गीत गाती है वह नर है। मादा कोयल के पास गीत नहीं है। उसका तो मादा होना ही काफी है। नर को थोड़ी जरूरत है; वह उतना सुंदर नहीं है।
इसलिए पुराने दिनों में लोग थोड़ा आभूषण पहनते, थोड़ी रंगीन पोशाक। कोई बड़ी मंहगी नहीं, रंगों का कोई बड़ा मूल्य थोड़े ही है। सस्ते रंग हैं, जगह-जगह मिल जाते हैं, सरलता से उपलब्ध हैं। और कोई हीरे-मोती थोड़े ही लगा लेने हैं; फूल भी लगाए जा सकते हैं। लकड़ी के टुकड़ों से भी आभूषण बन जाते हैं। __लाओत्से कहता है, 'अपनी पोशाक सुंदर बनाएं।'
तुम्हारे साधु पुरुष इन छोटी-छोटी बातों में तुम्हें सुख नहीं लेने देते। तुम्हारे साधु पुरुष बड़े कठोर हैं। वे जीवन में रस लेने के दुश्मन हैं। लाओत्से कहता है, जो सहज है वह ठीक है। सहज यानी ठीक। यह बिलकुल सहज है।
मुर्गा देखो; कलगी है। मुर्गी बिना कलगी के है। क्या शान से चलता है मुर्गा! सारा जगत मात है! लोग सुंदर पोशाक पहनें, शान से चलें, गीत गाएं, नाचें, भोजन में रस लें। छोटा छप्पर हो, लेकिन संतोष का बड़ा छप्पर हो! अपने रीति-रिवाज का मजा लें। इस चिंता में न पड़ें कि कौन सी रीति ठीक है, कौन सा रिवाज गलत है। कोई रीति-रिवाज ठीक-गलत नहीं है, मजे में सारी बात है। तुम्हें आनंद आता है तो बिलकुल ठीक है, होली मनाओ! इस फिक्र में मत पड़ो कि मनोवैज्ञानिक क्या कहते हैं। इस चिंता में पड़ने की जरूरत क्या है? ये मनोवैज्ञानिकों से पूछने की आवश्यकता कहां है? और कहीं मनोवैज्ञानिकों से पूछ कर कुछ निर्णय होगा?
मनोवैज्ञानिक कहेगा कि होली का मतलब है कि लोग दमित हैं, लोगों के भीतर दमन है, दमन को निकाल रहे हैं। उन्होंने होली का मजा भी खराब कर दिया। अब तुम किसी पर पिचकारी नहीं चला सकते, क्योंकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इसका मतलब तुम दमन निकाल रहे हो। तुम किसी पर रंग नहीं फेंक सकते, गुलाल नहीं फेंक सकते।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, तुम किसी पर पत्थर फेंकना चाहते थे, वह तुम नहीं फेंक पाए, यह बहाना है। तुम जबर्दस्ती • किसी के मुंह पर रंग पोत रहे हो, यह हिंसा है।
मनोवैज्ञानिक होली तक न करने देंगे; दीवाली पर दीये न जलाने देंगे। वे कोई न कोई मतलब निकाल लेंगे। मनोवैज्ञानिकों का एक ही काम है: बैठे हुए मतलब निकालते रहें और चीजों का रहस्य खराब करते रहें। उनकी जिंदगी तो खराब हो ही गई; वे दूसरों की जिंदगी खराब कर रहे हैं।
__ लाओत्से कहता है, इसकी फिक्र मत करो कि रीति-रिवाज का क्या अर्थ है। रीति-रिवाज मजा देता है, बस काफी है। मजा अर्थ है। होली भी मनाओ, दीवाली भी मनाओ। कभी दीये भी जलाओ, कभी रंग-गुलाल भी उड़ाओ। लाओत्से यह कह रहा है, जिंदगी को सरल और नैसर्गिक रहने दो। उस पर बड़ी व्याख्याएं मत थोपो।
_ 'पास-पड़ोस के गांव एक-दूसरे की नजर में हों, ताकि वे एक-दूसरे के कुत्तों का भौंकना और मुर्गों की बांग सुन सकें। और लोग अपने अंतिम दिनों तक भी अपने देश से बाहर न गए हों।'
लाओत्से यह कह रहा है, गांव पास-पड़ोस में होंगे, लेकिन क्या जरूरत है दूसरे गांव में जाने की? वह भी मन की रुग्ण दशा है जो भटकती है। अपना गांव काफी है। अपना आकाश बहुत। अपने फूल पर्याप्त। तो लाओत्से कहता है कि इतने पड़ोस में गांव होंगे कि कुत्ते भौंकेंगे तो आवाज सुनाई पड़ेगी, मुर्गे सुबह बांग देंगे तो भोर में उनकी आवाज सुनाई पड़ेगी पड़ोस के गांव की, पड़ोस के गांव में लोग सांझ को रोटियां बनाएंगे तो आकाश में उनका धुआं दिखाई पड़ेगा। इतने करीब भी जो गांव हैं, उन तक भी लोग क्यों जाएं?
379