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ताओ उपनिषद भाग६
तृप्ति होती है। यहां भी आप चाहते थे मुख्य मंत्री हो जाए, यहां भी आप सोचते थे कि जवाहरलाल के बाद जगमोहन दास के अलावा कोई आदमी भारत में है ही नहीं काम का। तो जवाहरलाल के बाद अगर भारत में समझ होगी तो जगमोहन दास, उनका लड़का ही प्रधानमंत्री होना चाहिए। वह यहां नहीं हो पाया तो अब कम से कम स्वर्ग में पैदा हो जाए। और मैंने कहा, अगर दोनों में कोई सच हो सके तो यह राम स्वामी ही सच हो सकता है, क्योंकि लड़का मरा राजनीति के तनाव में ही। चौबीस घंटे की कलह और संघर्ष और राजनीति का उपद्रव और दांव-पेंच, वही उसे ले डूबा। स्वर्ग जाने की अगर इन सबको सुविधा है तो साधु-संत कहां जाएंगे?
___मैंने कहा, तुलसी जी से फिर पूछना कि अगर राजनीतिज्ञ स्वर्ग में देवता होने लगे तो तुम्हारा क्या होगा? तुम कहां जाओगे? कोई जगह ही नहीं बचती फिर। नहीं, न तो तुलसी जी सच हैं और न कोई राम स्वामी सच हैं। राम स्वामी तो निश्चित झूठ थे वह तो मेरे कहे से उन्होंने सब किया था। लेकिन तुम वही सुनना चाहते हो जो तुम्हारे अहंकार को, तुम्हारे झूठ को परिपुष्ट करे।
फिर वे कभी राम स्वामी के पास दोबारा नहीं गए। वे लोगों को कहते रहे, वह भी कोई साधु! बहुत दुष्ट प्रकृति का आदमी है। मेरा तो लड़का मर गया, और उसने इस तरह की बातें कहीं। मगर डर के मारे वे सालीवाड़ा जाना बंद कर दिए। और गोपालदास जी के मंदिर भी सुबह जाने लगे शाम की बजाय। क्योंकि शाम को, हो न हो कहीं सच हो यही। भीतर तो डर। लेकिन राम स्वामी के खिलाफ जब तक वे जिंदा रहे-अब तो वे भी चले गए-वे जब भी मुझे मिलते तो उनके खिलाफ जरूर कुछ कहते।
सत्य और असत्य का बड़ा सवाल नहीं है। तुम जहां हो, उसे जो परिपुष्ट करे वह मधुर लगता है। तुम्हारी जो मनोकामना है उसे जो परिपुष्ट करे वह मधुर लगता है, वह मीठा लगता है, वह अपना लगता है। जो तुम्हारी धारणा को तोड़े वह शत्रु लगता है; बात कड़वी लगती है। तुम्हारी जड़ों को हिलाए उसे तुम कैसे मित्र मान सकते हो? वह तो मृत्यु जैसा मालूम होता है। इसीलिए तो तुमने जहर दिया सुकरातों को, सूलियों पर चढ़ाया तुमने क्राइस्टों को, पत्थर मारे बुद्धों को; और चालबाजों को तुमने पूजा है, झूठों को तुमने पूजा है।
लेकिन इसमें कुछ असंगति नहीं; गणित साफ है। तुम झूठे हो; तुम झूठों को ही पूज सकते हो। तुलसी जी ने होशियारी की। आंख बंद करके जो बात उन्होंने बताई कि तुम्हारा लड़का स्वर्ग में पैदा हो गया है, यह बड़ी होशियारी की बात है। यह राजनीतिक दांव-पेंच है। तुम जो चाहते थे वह कह दिया।
तुम जो चाहते हो वह ठीक हो ही नहीं सकता; तुम ठीक नहीं हो। इसलिए सत्य कड़वा लगता है। लाओत्से के वचन को हम समझने की कोशिश करें। 'सच्चे शब्द कर्ण-मधुर नहीं होते।'
क्योंकि तुम असत्य हो; और तुम्हारे कानों में इतने असत्य भरे हैं कि सत्य का पहले तो प्रवेश का ही उपाय नहीं। सत्य को तुम भीतर ही न जाने दोगे। क्योंकि वह तुम्हें डगमगा देगा, वह तूफान की तरह आएगा, आंधी की तरह आएगा; तुम्हारे सारे जीवन को ध्वस्त कर देगा। तो सत्य को तुम पहले तो सुनते ही नहीं। अगर भूल-चूक से सुन लिया तो तुम उसकी व्याख्या अपने हिसाब से कर लेते हो। फिर तुम व्याख्या में उसे लीप-पोत देते हो। तुम्हारी व्याख्या ऐसी है जैसे कि कड़वी गोली किसी को देनी हो तो शक्कर चढ़ा दी।
तो तुम व्याख्या कर लेते हो कड़वे सत्यों की, और व्याख्या करके तुम निश्चित हो जाते हो। या तो तुम सुनते नहीं, या सुनते हो तो गलत सुनते हो। और अगर इन दोनों बातों को तोड़ कर कोई व्यक्ति तुम्हारे भीतर सत्य को • पहुंचा दे तो वह व्यक्ति प्रीतिकर नहीं मालूम होता। गुरु कभी प्रीतिकर मालूम नहीं हो सकता। गुरु तो तभी प्रीतिकर
मालूम होगा जब तुम मिटने को तैयार हो जाओगे।
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