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प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार है
अब यह बहुत आश्चर्य की बात है और इसे मैं कहता हूं कि धारणाएं अचेतन से काम करती हैं-फ्रायड चाहे कितना ही बचना चाहे यहूदी और ईसाई धारणाओं से, वे उसके अचेतन में छिपी हैं। उसने कभी नहीं कहा कि आदम के पाप का फल हम भोग रहे हैं। लेकिन उसने जो सिद्धांत बनाया उसका तार्किक निष्कर्ष यही होता है।
मार्क्स है, जो कि अपने को बिलकुल धर्म-विरोधी समझता है, ईसाइयत का कट्टर दुश्मन समझता है, लेकिन उसकी भी धारणा वही है कि जब भी कहीं कोई भूल है, समाज जिम्मेवार है, तुम नहीं। कोई और जिम्मेवार है। और जब तक समाज न बदलेगा तब तक तुम न बदल सकोगे। और समाज कब बदलेगा? तुम थोड़ी देर के लिए हो; समाज कब बदलेगा? और तुम अगर समाज के बदलने के लिए प्रतीक्षा किए तो तुम तो मिट्टी में मिल जाओगे। समाज तो सदा रहेगा; तुम आज हो कल नहीं होओगे।
और समाज बदलेगा कब? दस हजार साल का तो इतिहास हमारे सामने है; समाज कभी बदला नहीं। बदल कर भी नहीं बदला। बड़ी-बड़ी बदलाहटें हो गईं और समाज का मूल रूप वही का वही रहा। समाज की बदलाहट तो ऐसी ही लगती है जैसे ऊपर-ऊपर के रंग बदल जाते हैं और भीतर की आत्मा पर कोई स्पर्श नहीं होता। गिरगिट जैसी है बदलाहट समाज की। गिरगिट रंग बदलता रहता है, लेकिन गिरगिट गिरगिट है। भीतर वही रहता है। बाहर के रंग बदल जाते हैं। समाज कब बदलेगा?
अंग्रेजी में एक शब्द है, उटोपिया। उटोपिया उस परिकल्पित समाज के लिए दिया गया नाम है जो कभी होगा, जिसको गांधी रामराज्य कहते हैं। उटोपिया शब्द बड़ा मूल्यवान है। वह जिस लैटिन मूल धातु से आता है उसका अर्थ होता है नो व्हेयर। उटोपिया का मतलब होता है नो व्हेयर, जो कहीं है ही नहीं और न कहीं होगा; सिर्फ खयाल में है। रामराज्य का अर्थ होता है, जो न था कभी, न है और न कभी होगा; कल्पना है।
तुम रामराज्य की प्रतीक्षा करोगे अपनी बदलाहट के लिए? जब सब ठीक हो जाएगा तब तुम बदलोगे?
फिर तुम कभी न बदल पाओगे। फिर तो यह तरकीब हो गई आत्मा के रूपांतरण से बचने की। न बदलेगा समाज, न तुम्हें बदलने की जरूरत होगी। यह तो तुम्हें बहाना मिल गया। और बहाने तो तुम बहुत चाहते हो। क्योंकि रूपांतरण कष्टप्रद है; रूपांतरण तपश्चर्या है; यात्रा दुरूह है। क्योंकि यात्रा पहाड़ की तरफ जाती है, वह ढलान की तरफ नहीं है। वासनाएं ढलान की तरफ हैं। वासनाओं में उतरने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता; पानी जैसे नीचे की तरफ बहता है ऐसे तुम वासनाओं में बहते चले जाते हो। जैसे एक पत्थर लुढ़कता है पहाड़ के शिखर से और खाई की तरफ चला जाता है। कुछ पत्थर को करना नहीं पड़ता; जमीन का गुरुत्वाकर्षण ही सब कर देता है। लेकिन पत्थर को चढ़ाना हो पहाड़ पर, तब श्रमसाध्य हो जाता है। शिखर पर पहुंचना हो तुम्हें जीवन के, तो तपश्चर्या!
लेकिन ये बहाने, कि जब पूरा समाज बदलेगा तभी तो तुम बदल सकोगे, फिर तुम्हें कभी न बदलने देंगे। और ऐसा समाज कभी होने वाला नहीं है। मान लें, सिद्धांततः, तर्क के लिए कि ऐसा समाज किसी दिन हो जाएगा, तो मैं तुमसे कहता हूं, अगर ऐसा समाज हो गया और फिर तुम बदले तो वह बदलाहट दो कौड़ी की होगी। पहली तो बात, ऐसा समाज कभी होगा नहीं। दूसरी बात, अगर ऐसा समाज कभी हो और तब तुम बदलो तो तुम्हारी बदलाहट दो कौड़ी की होगी। क्योंकि उसका अर्थ यह होगा कि समाज के कारण तुम बुरे थे, अब समाज के कारण भले हो; न तुम अपने कारण बुरे थे, न अपने कारण भले हो। इससे तुम्हारी आत्मा कैसे पैदा होगी? सभी लोग अच्छे हैं, इसलिए तुम अच्छे हो; सभी लोग बुरे थे, तुम भी बुरे थे। तुम लोगों की छाया हो। तुम्हारे पास आत्मा कैसे होगी? तुम केवल लोगों की प्रतिगूज हो। तुम्हारे पास अपना स्वर कैसे होगा?
___ और आत्मा का अर्थ होता है : तुम कुछ हो, तुम्हारे भीतर कुछ सघन-चेतना है। और सघन-चेतना का एक ही अर्थ है कि विपरीत परिस्थिति में भी तुम तुम ही रहोगे। परिस्थिति तुम्हें न बदल सकेगी, यही तो आत्मा का अर्थ है।
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