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प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार है
पाकिस्तान और हिंदुस्तान कितने ही शिमले-समझौते करें। सब थेगड़े हैं। क्योंकि भीतर सुलगती हुई आग है। मिलते भी हैं, हाथ भी बढ़ाते हैं, तो भीतर दुश्मनी है।
राजनीतिज्ञ मिलते हैं तो मुस्कुराते हैं; भीतर तलवारें छिपी हैं। मुस्कुराहटों में जो चमक है वह तलवारों की है; वह कोई हृदय की नहीं है। और भीतर तैयारी चल रही है। भीतर तैयारी चल रही है सारी दुनिया में हर घड़ी युद्ध की;
और हर घड़ी शांति की बातें हो रही हैं। राजनीतिज्ञ कबूतर उड़ा रहे हैं शांति के और रोज फैक्टरियां बड़ी करते जा रहे हैं युद्ध के सामान की। भीतर बम बन रहे हैं; जमीन के नीचे सुरंगें बिछाई जा रही हैं; ऊपर कबूतर उड़ाए जा रहे हैं। किसको धोखा दिया जाता है? सारे राजनीतिज्ञ शांति की बात करते हैं; फिर युद्ध क्यों होता है? बड़ी बेबूझ बात मालूम पड़ती है। जब सारे ही दुनिया के राजनीतिज्ञ शांति के पक्ष में हैं तो युद्ध कौन करवा रहा है?
नहीं, वे कहते हैं कि शांति के लिए युद्ध करना जरूरी है। वहीं सारा जाल है; शांति के लिए युद्ध करना जरूरी है। युद्ध मालूम होता है मूल चीज है। शांति तो दो युद्धों के बीच का समय है, जब लोग युद्ध की तैयारी करते हैं। बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। अभी तीसरा महायुद्ध भभक रहा आदमी के भीतर। कभी थोड़ा सा विस्फोट वियतनाम में होता है, कभी इजरायल में होता है, कभी बंगला देश में होता है। ये छोटे-छोटे विस्फोट हैं। ये आने वाले महा विस्फोट की खबरें हैं। ये छोटे-छोटे धक्के हैं भूकंप के। किसी भी दिन महा विस्फोट हो सकता है, और सारा मनुष्य अग्नि में समाहित हो सकता है। और राजनीतिज्ञ शांति की बातें किए चले जाएंगे। और शांति की सभाएं होती रहेंगी; कबूतर उड़ते रहेंगे। जैसे कि कबूतर उड़ाने से कोई शांतियां होती हैं। कबूतर और बम को कैसे जोड़ोगे? लेकिन आदमी के अंधेपन का कोई अंत नहीं है। - और यही दशा व्यक्ति-व्यक्ति की है। तुम पड़ोसी को देख कर मुस्कुराते हो, नमस्कार करते हो। ये सब थेगड़े हैं। भीतर कलह है; मुस्कुराहट कलह को छिपाने का ढंग है। मुस्कुराहट का मतलब ही यह है कि कुछ भीतर उबल रहा है जिसको छिपाना जरूरी है। तुम्हारी जयरामजी के पीछे भी आग है। अगर गौर से देखोगे, अगर अपना थोड़ा निरीक्षण करोगे, तो तुम पाओगे। और तुमने जितनी सुलह कर ली हैं, हर सुलह के पीछे वैर शेष रह गया है। वह इकट्ठा होता जा रहा है। उसकी राख जमती जा रही है। वह राख तुम्हारी कब्र बन जाएगी। इससे तो बेहतर था वैर को निकल ही जाने देते। जो होता होता, थेगड़े तो न लगाते। लेकिन थेगड़े लगाना समझदारी मालूम पड़ती है। _ मैं तुमसे कहता हूं, या तो वैर को निकल ही जाने देना, या तो लड़ ही लेना। कबूतर क्यों उड़ाना? कबूतरों का क्या कसूर? उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? या तो लड़ ही लेना, लेकिन प्रामाणिकता से। और या प्रामाणिकता से जड़ काट देना संघर्ष की। और मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम लड़ने को प्रामाणिकता से राजी हो जाओ तो तुम जड़ काट दोगे। क्योंकि कौन लड़ना चाहता है? लड़ना तो सिर्फ विनाश है इस बहुमूल्य जीवन का, जिसे तुम फिर से न पा सकोगे; जो फिर से मिलेगा, पक्का नहीं है। क्योंकि कोई मरा हुआ आदमी लौट कर नहीं कहता। इस अमूल्य अवसर को, जो तुम्हें यूं ही मिला है, तुम वैर में गंवाओगे? नहीं, अगर तुम ठीक प्रामाणिक हो जाओ और लड़ने में प्रामाणिक हो जाओ, तो तुम अचानक पाओगे लड़ने में कोई अर्थ नहीं है।
लेकिन लड़ने को तुम छिपाए रखते हो; ऊपर-ऊपर शांति की पर्त बनाए रखते हो। यह शांति की पर्त ही खतरनाक है। इसकी वजह से तुम अपनी असलियत को नहीं देख पाते कि तुम्हारे भीतर घृणा की कितनी मवाद है। उसको नहीं देख पाते, वह भीतर बढ़ती रहती है। अगर तुम देख लो तो तुम खुद ही उसका आपरेशन करने को राजी हो जाओगे। वह तो कैंसर है।
मेरा अनुभव है, अगर कोई पति अपनी पत्नी से दिल खोल कर लड़ लेता है, पत्नी पति से दिल खोल कर लड़ लेती है, बादल जल्दी ही छंट जाते हैं, शांति हो जाती है। लेकिन वह शांति सुलह की नहीं है, वह शांति
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