Book Title: Tao Upnishad Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 373
________________ - - ओत्से आदर्शवादी नहीं है। यही उसका आदर्श है। इस मूलभूत बात को पहले समझ लें। आदर्शवादी का अर्थ है जिसने जीवन की सहजता और निसर्ग के पार, जीवन की सहजता और निसर्ग से ऊपर, जीवन की सहजता और निसर्ग के विपरीत, कोई आदर्श नियत किया है; जो मनुष्य से कहता है, तुम्हें ऐसा होना चाहिए; जो मनुष्य को जैसा वह है वैसा स्वीकार नहीं करता; जो मनुष्य के जीवन में एक द्वंद्व पैदा करता है। तुम जैसे हो, निंदित; तुम्हें कुछ और होना चाहिए, तभी तुम स्वीकार योग्य हो सकोगे। आदर्श का अर्थ है मनुष्य के जीवन में एक कलह का सूत्र। आदर्श का अर्थ है मनुष्य की प्रकृति की गहन निंदा, और कहीं दूर आकाश में ऐसी प्रतिमा का निर्माण, जैसा मनुष्य को होना चाहिए। __ लाओत्से आदर्शवादी नहीं है। लाओत्से मनुष्य के निसर्ग को उसकी परिपूर्णता में स्वीकार करता है। वह तुमसे नहीं कहता कि तुम्हें ऐसा होना चाहिए, वह तुमसे कहता है, यह होने की दौड़ छोड़ो। जब तक तुम अपने से भिन्न कुछ होना चाहोगे तब तक तुम मुसीबत में रहोगे। तुम तो वही हो जाओ जो तुम हो। दौड़ो नहीं, अपने को स्वीकार करो। निसर्ग ही परम निष्पत्ति है; उसके पार कुछ भी नहीं है। उसके पार मनुष्य के मन की अंधी दौड़ है, और 'कल्पनाएं हैं, और सपनों के इंद्रधनुष हैं, जिन्हें न कभी कोई पूरा कर पाया है क्योंकि वे पूरे किए ही नहीं जा सकते-और न कभी कोई पूरा कर सकेगा। क्योंकि उनका स्वभाव ही असंभव पर निर्भर है। आदर्श ही क्या अगर असंभव न हो! आदर्श का प्राण ही उसका असंभव होना है। और वहीं उसकी अपील है, आकर्षण है। क्योंकि अहंकारी आदर्श में इसीलिए उत्सुक होता है कि वह असंभव है; वह गौरीशंकर जैसा है, जिस पर चढ़ना करीब-करीब होगा नहीं। और गौरीशंकर पर तो कोई चढ़ भी जाए, आदर्श पर कोई कभी नहीं चढ़ पाता। तुम जितने उसके करीब पहुंचते हो उतना ही तुम्हारा अहंकार आदर्श को ऊंचा उठाने लगता है। इसलिए तुम कभी करीब नहीं पहुंचते; तुम में और तुम्हारे आदर्श में सदा उतनी ही दूरी रहती है जितनी पहले थी, अंतिम दिन भी उतनी ही दूरी रहती है। . आदर्शवादी अपने को ही काटता है, तोड़ता है, किसी प्रतिमा के अनुसार, जो उसकी कल्पना ने तय किया है। ऐसे वह भग्न होता है, भ्रष्ट होता है। ऐसे धीरे-धीरे वह प्रतिमा तो कभी निर्मित नहीं होती जो उसके सपनों ने संजोई थी; लेकिन जो प्रतिमा प्रकृति ने उसे दी थी वह जरूर खंडित और खंडहर हो जाती है। तुम परमात्मा तो नहीं बन पाते; आदमियत भी खो जाती है। तुम जो होना चाहते थे, वह तो नहीं हो पाते; तुम जो थे, वह भी खो जाता है। विषाद के सिवाय हाथ में कुछ भी लगता नहीं। सभी आदर्शवादी दुखी मरते हैं, क्योंकि असफल मरते हैं। तुम अगर आदर्शवादियों का जीवन ठीक से समझने की कोशिश करो तो तुम उनसे ज्यादा तनावग्रस्त आदमी न पाओगे। वे जीवन की हर छोटी सी चीज को 363

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