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राज्य छोटा और बिमर्गोन्मुख छो
निसर्ग के विपरीत ले जाने वाले दुश्मन हैं। और अगर कहीं कोई परमात्मा है तो वह निसर्ग के साथ बह कर ही उपलब्ध होता है, विपरीत चल कर नहीं। अगर कहीं कोई ब्रह्मचर्य है तो वासना की समझ से ही उसका फूल खिलता है, वासना से लड़ कर नहीं।
आदर्शवादी का अर्थ है जो तुम्हें तुम्हारी प्रकृति के खिलाफ संघर्ष में उतरवा दे। एक बार तुम फंस गए तो उस जाल के बाहर आना करीब-करीब मुश्किल है। क्योंकि जाल ऐसा है कि तुम्हें खुद भी लगेगा कि बात तो बिलकुल ठीक है। ब्रह्मचर्य में क्या भूल है? ब्रह्मचर्य से सुंदर और क्या? वासना से ज्यादा दूषित और क्या? वासना तो गंदगी है और ब्रह्मचर्य तो फूल है! लेकिन तुम्हें पता, कमल कीचड़ में खिलता है। माना कि वासना कीचड़ है, लेकिन कमल कीचड़ के खिलाफ नहीं खिल सकता। और माना कि ब्रह्मचर्य कमल है, लेकिन कमल कीचड़ से ही उपजता है। कमल कीचड़ का ही रूपांतरण है। कमल कीचड़ ही है अपनी परिपूर्ण नैसर्गिक अवस्था में खिल गया; कीचड़ में जो छिपा था वह प्रकट हो गया।
आदर्शवादी कीचड़ और कमल को लड़ाता है। और जैसे ही लड़ाई शुरू हो जाती है, तुम कीचड़ ही रह जाते हो। कमल फिर पैदा ही नहीं होगा। क्योंकि कमल तो कीचड़ का ही प्रवाह है। कमल तो कीचड़ से ही आता है। कीचड़ और कमल के बीच कोई दुश्मनी नहीं है; बड़ी गहन दोस्ती है। वासना से ही खिलता है ब्रह्मचर्य का कमल। करुणा का कमल आता है क्रोध से ही। त्याग भोग का सार है। उपनिषद कहते हैं : त्येन त्यक्तेन भुंजीथा। उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा। भोगोगे ही नहीं, त्यागोगे कैसे? भोग को ही न जाना, त्याग को तुम जानोगे कैसे? त्याग तो बहुत दूर है। भोग तो मार्ग है; त्याग मंजिल है। मार्ग का ही त्याग कर दिया; मंजिल कैसे मिलेगी?
तो दुनिया में दो तरह के लोग हैं। और बड़ी समझदारी की जरूरत है चुनाव करने की, अन्यथा तुम किसी न किसी जाल में उलझ ही जाओगे। एक तरह के लोग हैं जिनको हम कहें आदर्शवादी, आइडियलिस्ट। उसमें दुनिया में जितने सौ प्रसिद्ध लोग हैं, उनमें से निन्यानबे आ जाते हैं। निन्यानबे महापुरुष आदर्शवादी हैं। उन्होंने ही तो नरक बना दिया पृथ्वी को। उनके ही पदचिह्नों पर चल कर तो तुम भटके हो। लेकिन गणित ऐसा है कि तुम्हें यह कभी समझ में न आएगा कि महात्मा ने डुबाया; तुम्हें यही समझ में आएगा कि तुम खुद ही डूबे, क्योंकि तुमने महात्मा की मानी न। महात्मा की मान कर ही डूबे हो तुम। लेकिन भीतर तर्क यही कहेगा कि अगर मान लेते और ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते तो क्यों डूबते? डूबे इसलिए कि तुम माने नहीं!
अब यह बड़ा जटिल जाल है। जटिल इसलिए है कि तुम्हारा मन कहेगा कि जो महात्मा ने कहा था वह कर लेते और फिर न पहुंचते तब महात्मा का दोष था। तुम पूरा किए ही नहीं तो पहुंचोगे कैसे? और महात्मा ने जो कहा था वह ऐसा था कि वह पूरा किया ही नहीं जा सकता। इसलिए जाल भयंकर है।
महात्मा ने कहा था, प्रकृति से लड़ो। तुम प्रकृति के पुतले हो; लड़ोगे कैसे? रो-रोआं प्रकृति का है, धड़कन-धड़कन प्रकृति की है, श्वास-श्वास प्रकृति की है। जिस ऊर्जा से तुम लड़ने चले हो, वह भी प्रकृति की है। प्रकृति में ही छिपा है परमात्मा। परमात्मा कोई प्रकृति का शत्रु नहीं है। प्रकृति में ही छिपा है, प्रकृति का ही गहनतम रूप है। अगर प्रकृति मंदिर है तो परमात्मा विराजमान प्रतिमा है उस मंदिर में ही।
असंभव को जब तुम करने में लग जाओगे तो एक कठिन जाल पैदा होगा। वह कठिन जाल यह है कि असंभव पूरा न होगा, और जब पूरा न होगा तब तुम कैसे कह सकोगे कि जो बताया गया था वह गलत था। तब तुम्हें ऐसा लगेगा कि पूरा न कर पाया, यह मेरी कमजोरी है। तब तुम आत्मग्लानि से भरोगे। तब तुम निंदा से भरोगे। तब तुम स्वयं को घृणा करने लगोगे; स्वयं को ऐसा देखोगे जैसे पाप की खान। बड़े मजे की बात है, महात्मा तुम्हें आत्मा तो नहीं दे पाते, तुम्हारी आत्मा को कलुषित कर देते हैं।
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