Book Title: Tao Upnishad Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 359
________________ प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार है फ्रायड ने अपने मरने के पहले एक वक्तव्य दिया और उसने कहा कि मुझे इस बात की कोई भी आशा नहीं कि मनुष्य कभी भी सुखी हो सकेगा। हो ही नहीं सकता। क्योंकि कारण अनंत हैं। और जब तक सब कारण ठीक न बैठ जाएं, और सारा अस्तित्व ठीक न हो जाए, तब तक कोई आदमी सुखी कैसे हो सकता है? किसी ने फ्रायड को पूछा कि जब कोई आदमी सखी ही नहीं हो सकता तो तुम लोगों की चिकित्सा क्या करते हो? तो उसने कहा, हम इतना ही करते हैं कि लोग सामान्य रूप से दुखी रहें, असामान्य रूप से दुखी न हो जाएं। बस, इससे ज्यादा हम कोई अपेक्षा नहीं करते। सामान्य रूप से दुखी रहें, असामान्य रूप से दुखी न हो जाएं। बस हम थोड़ा सा दुख कम कर सकते हैं, सुख की तो कोई संभावना नहीं। और यहां पूरब में हमने बिलकुल उलटी ही बात कही कि सुख तो दूर, सुख का भी कोई मूल्य है, आनंद की संभावना है। आनंद का अर्थ है महासुख। आनंद का अर्थ है ऐसा सुख जो शुरू तो होता है, लेकिन अंत नहीं होता। आनंद का अर्थ है ऐसा सुख जो शाश्वत है। जिसकी फिर अहर्निश वर्षा होती रहती है; फिर कभी प्यासा नहीं होता कोई उसे पाकर, एक दफा पी लिया जिसने आनंद का जल वह सदा के लिए तृप्त हो जाता है, सदा-सदा के लिए। सुख तो क्षणभंगुर है; अभी है, अभी खो जाएगा। उसका कोई बड़ा मूल्य नहीं है। पानी पर खींची गई लकीर है, बनी भी नहीं कि मिट जाएगी। और कितनी ही चेष्टा करो, मिट ही जाएगी। उसे बचाने का उपाय नहीं है। सुख का स्वभाव नहीं कि वह बचे। यहां पूरब में लोग हुए जिन्होंने कहा कि सुख की तो बात ही छोड़ो, सुख तो दो कौड़ी का है, हम आनंद का आश्वासन देते हैं। - इस आश्वासन का आधार क्या है? इस आश्वासन का आधार है कि तुम दूसरे पर दायित्व मत डालो। जीवन की भूल-चूक को, जीवन के दुख-पीड़ा को, जीवन के संताप को किसी और के कंधे पर मत रखो। तुमने रखा कि फिर तुम दुखी ही रह जाओगे। क्योंकि उसी कोशिश में तुम्हारा अहंकार मजबूत होता जाएगा। और सुख की क्षीणता होती जाएगी। आनंद तो दूर, सुख भी न पा सकोगे। पूरब ने कुछ और ही बात कही : सारी स्थिति का दायित्व अपने ऊपर ले लो; दायित्व लेते ही तुम्हारे भीतर आत्मा का जन्म शुरू हो जाता है। किसी ने तुम्हें गाली दी। निश्चित ही, अगर उस आदमी ने गाली न दी होती तो तुम्हें क्रोध न आया होता। यह सीधी-साफ बात है। तुम अपने रास्ते पर चले जा रहे थे गीत गुनगुनाते; क्रोध का सवाल ही न था, तुम बड़े प्रसन्न थे, पैरों में पुलक थी, अभी सुबह थी, रात विश्राम करके ताजा थे, स्नान करके घर से निकले थे, गीत गुनगुना रहे थे। एक आदमी ने गाली दे दी। साफ है कि इस आदमी की गाली ने तुम्हें क्रोधित किया। लेकिन नहीं, जल्दी मत करना। इतना साफ नहीं है। क्योंकि पूरब यह कहता है कि अगर क्रोध तुम्हारे भीतर न होता तो इस आदमी की गाली निष्फल चली जाती; यह गाली तो देता, लेकिन तुम्हारे भीतर गाली कहीं छिद न सकती थी; इसका तीर आर-पार निकल जाता। तुम्हारे भीतर क्रोध न होता तो क्रोध यह आदमी पैदा नहीं कर सकता था। इसलिए मूल कारण यह आदमी नहीं है; निमित्त से ज्यादा नहीं है। पश्चिम इसको कहता है मूल कारण; पूरब इसको कहता है निमित्तमात्र। ऐसा ही समझो कि तुमने एक कुएं में बाल्टी डाली। कुएं में पानी ही न था। अब तुम क्या करोगे? थोड़ी देर खखोड़ोगे, आवाज करोगे, खींच कर वापस अपनी खाली बाल्टी लिए घर चले जाओगे। तुम्हारे भीतर क्रोध न हो, किसी ने गाली की बाल्टी तुम्हारे भीतर डाली; क्या भर लेगा? क्या निकाल लेगा? बाल्टी खाली लौट आएगी। कुएं में पानी होता है तो बाल्टी पानी निकाल सकती है। इसलिए बाल्टी पानी निकालती है यह सिर्फ निमित्त है; कुएं में पानी होता है तो ही निकालती है। मूल कारण कुएं में पानी का होना है। 349

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