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ताओ उपनिषद भाग ६
यदि तुमने दूसरे पर दोष मढ़ने को जीवन की शैली बना लिया हो तो तुम कभी धार्मिक न हो पाओगे-एक बात निश्चित! तुम संसार में कितने ही सफल हो जाओ, तुम कितना ही धन कमा लो, कितनी ही यश-प्रतिष्ठा, लेकिन तुम वस्तुतः असफल ही रह जाओगे। क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई क्रांति घटित न हो सकेगी। और एक ही क्रांति है, वह भीतर की क्रांति है। बाहर तुम कितना पा लेते हो उसका बहुत मूल्य नहीं है; क्योंकि भीतर तो तुम बढ़ते ही नहीं, भीतर तो तुम बचकाने रह जाते हो। बाहर की साधन-सामग्री बढ़ जाती है, भीतर का मालिक कली की तरह बंद रह जाता है। और जब तक कली न खिले तब तक जीवन में कोई सुवास न होगी। स्वर्ग तो बहुत दूर, सुवास भी नहीं हो सकती। और भीतर की कली तब तक न खिलेगी जब तक तुम्हारी दृष्टि में यह रूपांतरण न आ जाए कि भूल मेरी है।
धर्म की शुरुआत होती है इस बोध से कि भूल मेरी है। ऐसा ही नहीं कि कभी-कभी भूल मेरी होती है। अगर कभी-कभी का तुमने हिसाब रखा तो कौन निर्णय करेगा? अगर तुमने सोचा कि कभी मेरी भूल होती है, कभी और की भूल होती है, तब तुम आधे-आधे ही रहोगे। यह सवाल नहीं है कि भूल किसकी होती है, भूल तो दूसरे की भी होती है। लेकिन धार्मिक दृष्टि का यह आधार है कि जब भी कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है तो भूल मेरी है, पूर्णतः भूल मेरी है, समग्रतः भूल मेरी है। ऐसे बोध के आते ही अहंकार गिर जाता है और तुम्हारे भीतर एक क्रांति शुरू हो जाती है, तुम बदलना शुरू हो जाते हो।
, पूरब और पश्चिम की दृष्टियों में यही भेद है। पश्चिम ने, दूसरे की भूल है, इस बात को इतने गहरे से अंगीकार किया है कि बड़े-बड़े दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान निर्मित हो गए हैं इसी आधार पर। अगर तुम फ्रायड के पास जाओ या फ्रायड के मनोविश्लेषक के पास, तो तुम्हारी बीमारी के लिए वह हमेशा किसी दूसरे को जिम्मेवार ठहराएगा। अगर तुम भयभीत हो तो वह तुम्हारे बचपन में खोजेगा कि शायद तुम्हारे पिता ने तुम्हें डराया हो। अगर तुम प्रेम करने में असमर्थ हो और तुम्हारे भीतर प्रेम नहीं खिलता, तो जरूर तुम्हारी मां ने कुछ किया होगा; तुम्हें प्रेम न दिया होगा, तिरस्कारा होगा, अंगीकार न किया होगा, तुमसे मां ने जल्दी ही अपना स्तन छुड़ा लिया होगा। लेकिन फ्रायड हमेशा भूल खोजेगा दूसरे में।
अब यह एक बहुत दुष्टचक्र है। अगर तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार किया है इसलिए तुम क्रुद्ध हो, तो तुम्हारे क्रोध को बदलने का उपाय ही न रहा। क्योंकि तुम्हारे पिता को बदलना पड़े। हो सकता है, पिता स्वर्गवासी हो गए हों। मौजूद भी हों, तो भी अगर तुम्हारे पिता फ्रायड के पास जाएं तो उनको भी वह यही समझाएगा कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ कुछ गलत किया होगा; तुम्हारी मां ने, बचपन में किसी दूसरे ने, समाज ने, परिवेश ने कुछ किया होगा। पर मूल आधार यह है कि भूल तुम्हारी नहीं हो सकती। भूल सदा किसी और की होगी। और अगर इस तरह तुम पीछे चलो तो तुम पाओगे कि फ्रायड जैसे व्यक्ति के मन में भी ईसाइयत का बहुत ही पुराना सिद्धांत काम कर रहा है। वह यह है कि आदम ने मूल पाप किया; उसका फल आदमी भोग रहे हैं।
ईसाइयत की धारणा यह है कि तुम अगर दुख पा रहे हो तो वह आदम के पाप का फल है। पहले आदमी का। और अगर हम फ्रायड को-जो कि ईसाई नहीं मालूम पड़ता-अगर उसकी चिंतन-धारा को भी उसके ठीक अंत तक खींच कर ले जाएं तो उसका परिणाम यही होगा। तुम्हारी गलती तुम्हारे पिता पर, तुम्हारे पिता की गलती उनके पिता पर, उनके पिता की गलती उनके पिता पर, अंततः आदम पकड़ में आएगा। और आदम को बदलने का अब क्या उपाय है? तो इसका अर्थ यह हुआ कि बदलाहट हो ही नहीं सकती।
इसलिए फ्रायड का प्रभाव जितना पश्चिम में बढ़ता चला गया उतनी ही धार्मिक क्रांति की संभावना क्षीण होती चली गई। बदलोगे कैसे? तुम्हारा कोई कसूर नहीं है, तुम्हारी कोई भूल नहीं है। भूल किसी और की है। और जब तक और न बदल जाए तब तक तुम बदल नहीं सकते।
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