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ओत्से से ज्यादा सूक्ष्म जीवन का निरीक्षक खोजना कठिन है। निरीक्षण तो बहुत लोग जीवन का करते हैं, लेकिन निरीक्षण में शुद्धता नहीं होती; चित्त दर्पण की भांति नहीं होता: विचारों से भरा होता है। इसलिए निरीक्षण निरीक्षण न रह कर व्याख्या बन जाता है; विचार सम्मिलित हो जाते हैं।
और विचार निरीक्षण की शुद्धता को नष्ट कर देते हैं। दो तरह के निरीक्षण हैं। एक निरीक्षण है जब तुम विचारों से भरे हुए जीवन को देखते हो। तब तुम जीवन को नहीं देखते। तुम अपने विचारों की ही छवि जीवन में देख लोगे। तब तुम अपने विचारों को ही जीवन पर आरोपित कर लोगे। तब तुम जो देखना ही चाहते थे वही देख लोगे। वही नहीं, जो है, वरन वह जो तुम पहले से ही मान बैठे थे-तुम्हारा विश्वास, तुम्हारी धारणा, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा शास्त्र, तुम जीवन में देख लोगे। और
तब तुम जीवन के सम्यक निरीक्षक नहीं हो।। जीवन को तो ऐसे देखा जाना चाहिए जैसे दर्पण देखता है-खाली; शून्य। जिसके पास अपना जोड़ने को कुछ भी नहीं है, जो सिर्फ दिखलाता है वही जो है। शांत झील; एक तरंग भी नहीं। उगता है चांद, बदलियां आकाश में गतिमान होती हैं; बनता है प्रतिबिंब। फिर एक और झील है, तरंगायित, लहरों से भरी। तब भी चांद का प्रतिबिंब तो बनता है, लेकिन हजार-हजार खंडों में टूट जाता है। तुम चांद को खोज न पाओगे। लहर-लहर पर चांद फैला होगा। तुम्हें पूरी झील पर ही चांदनी फैली हुई मालूम पड़ेगी। चांद को पकड़ना मुश्किल होगा।
तुम्हारा मन विचार की तरंगों से भरा है। जब तुम पांडित्य लेकर आते हो प्रकृति के पास तब तुम चूक जाते हो। तब तुम्हें जरूर कुछ दिखाई पड़ेगा, लेकिन तुम इस धोखे में मत पड़ना कि जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह सत्य है। वह केवल तुम्हारे विचार की अनुगूंज है। तुमने जो पहले से ही स्वीकार कर लिया था, वही प्रतिफलित हो रहा है। लाओत्से बड़ा शुद्ध निरीक्षक है। वह कोई विचार लेकर प्रकृति के पास नहीं गया है। उसने तथ्यों को सीधा-सीधा देखना चाहा है। बड़ा कठिन है। शायद इससे कठिन और कुछ भी नहीं है। क्योंकि यही तो मार्ग है सत्य के उदघाटन का।
लाओत्से न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न बौद्ध है। लाओत्से का कोई धर्म नहीं है। लाओत्से का कोई शास्त्र भी नहीं है। लाओत्से ने जो भी देखा है वह किसी शास्त्र, किसी शब्द की आड़ से नहीं देखा; सब हटा कर देखा है। इसलिए जो लाओत्से को दिखाई पड़ा है वह बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ता है।
महावीर के वचनों में भी ऐसी शुद्धता नहीं है, क्योंकि महावीर के वचन बड़ी प्राचीन परंपरा पर आधारित हैं। कृष्ण के वचनों में भी ऐसी शुद्धता नहीं है, क्योंकि कृष्ण के वचन तो वेदों और उपनिषदों का सार हैं। बुद्ध के वचन महावीर और कृष्ण के वचनों से ज्यादा शुद्ध हैं, फिर भी लाओत्से के मुकाबले वैसी शुद्धता नहीं है। बुद्ध बगावती हैं। उन्होंने वेदों को इनकार कर दिया है, शास्त्रों को इनकार कर दिया है, उपनिषदों को ताक पर रख दिया
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