Book Title: Tao Upnishad Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 315
________________ संत संसार भर को देता है, और बेशर्त आकांक्षा तो ठीक है, परम पद चाहिए; विधियां गलत हैं। और विधियों को जिसने ठीक कर लिया, उसकी आकांक्षा पूरी हो जाती है। बुद्ध ने बार-बार कहा है कि तुम मुझसे गंतव्य मत पूछो, गंतव्य तो तुम्हें ही पता है। तुम सिर्फ केवल मुझसे विधियां सीख लो। मंजिल मत पूछो, मंजिल तो तुम्हें भी पता है; मार्ग भर पूछ लो। बुद्ध के वचनों में कहीं भी मंजिल का उल्लेख नहीं है, सिर्फ मार्ग का। मंजिल किसे पता नहीं है? आंखें अंधी हों तो भी आदमी आनंद खोज रहा है। पैर लंगड़े हों तो भी आदमी आनंद खोज रहा है। बीमार हो, स्वस्थ हो, बच्चा हो, जवान हो, बूढ़ा हो, आदमी आनंद खोज रहा है। पौधे, पक्षी, सभी आनंद खोज रहे हैं। मार्ग, मार्ग भला गलत हो, मंजिल किसी की भी गलत नहीं है। सुर-तान बंधी है भीतर मंजिल की तरफ। लेकिन कैसे पहुंचें? कहां है आनंद? कहां है स्वर्ग का राज्य? ताओ का अर्थ भी होता है मार्ग। ताओ मंजिल नहीं है। मंजिल देने की जरूरत ही नहीं है। उसकी खबर लेकर तो तुम पैदा ही हुए हो। वह तो तुम्हारा ब्लू-प्रिंट है; वह तो तुम्हारे रोएं-रोएं में लिखी है। उसे किसी से भी सीखने की जरूरत नहीं है। वह तुम सीखे हुए ही आए हो। अगर तुम उसे सीखे हुए न आए होते तो कोई तुम्हें सिखा भी न सकता था। थोड़ी देर को सोचो, अगर आनंद की अभीप्सा ही तुम्हारे भीतर न होती, तो बुद्ध सिर पटकें और मर जाएं, कहीं आनंद की अभीप्सा पैदा करवाई जा सकती है? अभीप्सा भीतर हो तो कोई जगा दे; अभीप्सा भीतर हो तो कोई जला दे। अभीप्सा ही भीतर न हो तो क्या करोगे तुम? अगर बुद्ध पुरुषों का तुम पर प्रभाव पड़ता है, अगर सदगुरु तुम्हें अनुप्रेरित करते हैं, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि जो तुम चाहते थे, उस चाह को ही उन्होंने निखार कर साफ कर दिया। जो तुम चाहते ही थे सदा से उसी को उन्होंने तुम्हें समझा दिया। जो तुम्हारे भीतर छिपा ही था उसी को उन्होंने प्रकट कर दिया। जो अनजाना था, अपरिचित था, धुंधला-धुंधला था, उसे उन्होंने साफ कर दिया। कोई किसी को मंजिल नहीं दे सकता। मार्ग दिया जा सकता है। ताओ का अर्थ है मार्ग। बुद्ध के वचनों का जो सबसे महत्वपूर्ण संग्रह है उसका नाम है धम्मपद। उसका अर्थ होता है : दि राइट वे। धम्म का अर्थ होता है ठीक और पद का अर्थ होता है जिस पर चला जाए, जिस पर पैर पड़ें। बुद्ध ने कहा है, तुम्हारे पास सब है, सिर्फ कैसे तुम उस तक पहुंचो, बस उस मार्ग की जरूरत है। मार्ग क्या है? मार्ग है कि अगर तुम प्रथम होना चाहते हो तो अंतिम हो जाओ, तुम प्रथम हो जाओगे। अगर तुम सदा ही अंतिम रहना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी, प्रथम होने की दौड़ में लग जाओ। तुम सदा अंतिम रह जाओगे। लेकिन तब रोना मत, पछताना मत। यह मत कहना कि मैंने इतनी दौड़ की, इतना श्रम किया, इतना कष्ट उठाया, और फिर भी मैं अंतिम हूं। तुम अंतिम अपने कारण हो। अगर तुम सच में ही प्रथम होना चाहते हो तो तुम प्रथम होने की दौड़ छोड़ दो। क्यों? क्योंकि प्रथम होने की दौड़ तुम्हें अपने स्वभाव से वंचित करा देगी। जैसे ही तुम किसी के साथ प्रतिस्पर्धा में लगते हो, नजर बाहर हो जाती है। प्रथम होने की दौड़ का अगर ठीक-ठीक अर्थ निकालना चाहो, निचोड़, सार, तो क्या है ? प्रथम होने की दौड़ का अर्थ है दूसरे को पीछे करने की दौड़। तुम्हारा संबंध दूसरे से हो जाता है। तुम दूसरे को देखने लगते हो। तुम दूसरे की चालों का जवाब देने लगते हो। तुम दूसरे से संघर्ष करने लगते हो। तुम दूसरे को मिटाने में लग जाते हो। तुम दूसरे को गिराने में लग जाते हो। क्योंकि वही एकमात्र रास्ता दिखाई पड़ता है कि कैसे तुम प्रथम हो जाओगे। जितने प्रतिस्पर्धी हैं, उनको समाप्त करना होगा, तभी तो प्रथम हो सकोगे। जो आदमी प्रथम होने की दौड़ में लगता है उसकी नजर दूसरे से उलझ जाती है। और जो दूसरे से उलझ गया वह अपने को खो देता है। और अपने को पा लेना ही प्रथम होना है। क्योंकि तुम परमात्मा हो ही। तुम्हारे 305

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