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ताओ उपनिषद भाग ६
का जरूरत है?
कुछ तो मांगना ही पड़ेगा। जुनून ने कहा कि तो फिर तुम्हें जो ठीक लगता हो दे दो। तो उन्होंने कहा, हम तुम्हें यह वरदान देते हैं कि तुम जिसे भी छुओगे, वह अगर मुर्दा भी हो तो जिंदा हो जाएगा, बीमार हो तो स्वस्थ हो जाएगा। उसने कहा, ठहरो! ठहरो! अभी दे मत देना। देवदूतों ने कहा, क्या प्रयोजन ठहरने का? उसने कहा, ऐसा करो, मेरी छाया को वरदान दो, मुझे मत। क्योंकि अगर मैं किसी को छुऊंगा और वह जिंदा हो जाएगा तो उसे धन्यवाद देना पड़ेगा। सामने ही रहूंगा खड़ा। और इस संसार में लोग धन्यवाद देने से भी डरते हैं। मरना पसंद करेंगे, लेकिन अनुगृहीत होना नहीं। इससे उनके अहंकार को चोट लगती है। तुम ऐसा करो, मेरी छाया को वरदान दे दो। मैं तो निकल जाऊं, मेरी छाया जिस पर पड़ जाए, वह ठीक हो जाए। ताकि किसी को यह पता भी न चले कि मैंने ठीक किया है। और मैं तो जा चुका होऊंगा, और छाया को धन्यवाद देने की किसको जरूरत है?
यह जुनून बड़ी समझ की बात कह रहा है। संत अगर देना भी चाहें तो तुम लेने को राजी नहीं होते। संत अगर उंडेलना भी चाहें तो तुम्हारा हृदय का पात्र सिकुड़ जाता है। तुम लेने तक में भयभीत हो गए हो। तुम्हारे प्राण इतने छोटे हो गए हैं, देना तो दूर, तुम लेने तक में भयभीत हो। तुम्हारे जीवन के बहुत से अनुभवों से तुमने यही सीखा है : जिससे भी लिया उसी ने गुलाम बनाया। उसी अनुभव के आधार पर तुम संतों के साथ भी व्यवहार करते हो। बड़ी भूल हो जाती है। संत तो वही है जो तुम्हें देता है और मुक्त करता है, और देता है और तुम्हें मालिक बनाता है।
संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं; संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते।'
ऐसे ही जैसे छाया ने सब कर दिया, उन्होंने कुछ नहीं किया। इसलिए संत कभी भी नहीं कहते कि हमने यह किया, हमने यह किया। जहां यह आवाज हो करने की, वहां तुम समझना कि संतत्व नहीं है। संत तो ऐसे हो जाते हैं जैसे बांस की पोंगरी, गीत परमात्मा के हैं। संत निमित्त मात्र हो जाते हैं। संत अपने को बिलकुल हटा लेते हैं। संत पारदर्शी हो जाते हैं। तुम अगर उनमें गौर से देखोगे तो परमात्मा को खड़ा पाओगे; तुम उनको खड़ा हुआ न पाओगे।
इसलिए तो हमने बुद्ध को भगवान कहा, महावीर को भगवान कहा। महावीर ठीक तुम्हारे जैसे, बुद्ध ठीक तुम्हारे जैसे। लेकिन जिन्होंने गौर से देखा, उन्होंने पाया कि वहां बुद्ध हैं ही नहीं, वे तो निमित्त हो गए। वह घर तो खाली है; वहां तो परमात्मा ही सिंहासन पर विराजमान है।
इसलिए बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने चालीस वर्ष निरंतर बोला, और एक शब्द नहीं बोला। और चालीस वर्ष निरंतर उन्होंने यात्रा की, और एक कदम नहीं चले। इसका अर्थ समझ लेना। इसका अर्थ यह है कि परमात्मा ही बोला, परमात्मा ही चला। बुद्ध तो उसी दिन समाप्त हो गए जिस दिन समाधि उपलब्ध हुई।
'संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते। क्योंकि उन्हें वरिष्ठ दिखने की कामना नहीं है।'
वरिष्ठ दिखने की कामना तो हीन-ग्रंथि से पैदा होती है। संत तो परमात्मा को उपलब्ध हो गए; कोई हीनता न बची, कोई हीनता की रेखा न बची। कुछ पाने को न बचा। अब हीनता कैसी? नियति पूरी हो गई; गंतव्य उपलब्ध हो गया; मंजिल आ गई। अब कुछ और इसके आगे नहीं है। इसलिए अब तुमसे वरिष्ठ होने की, श्रेय लेने की बात ही नासमझी की है। और अगर कोई श्रेय लेना चाहे तो समझना कि उसकी मंजिल अभी नहीं आई। और अगर कोई वरिष्ठ होना चाहे तो समझना कि अभी राह पर है, राहगीर है, अभी पहुंचा नहीं।
सदगुरु को पहचानने के जो सूत्र हैं, उनमें एक सूत्र यह भी है कि वह वरिष्ठ न होना चाहेगा, वह श्रेय न लेना चाहेगा। तुम अगर उसके पास ज्ञान को भी उपलब्ध हो जाओगे तो वह यही कहेगा कि तुम अपने ही कारण उपलब्ध हो गए हो; मैं तो केवल बहाना था।
बुद्ध मरने लगे, आनंद रोने लगा। तो बुद्ध ने कहा, रुक, क्यों रोता है? आनंद ने कहा कि आपके बिना मैं कैसे ज्ञान को उपलब्ध होऊंगा?
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