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ताओ उपनिषद भाग६
क्योंकि तुम्हारे पास हृदय ही नहीं है, वीणा के तार ही टूटे पड़े हैं, अस्तित्व कैसे गीत को गाए? कैसे गाए अपने गीत को तुम्हारे हृदय की वीणा पर? अहंकारी के पास कोई हृदय नहीं होता। अहंकार कीमत मांगता है। और सबसे पहली कुर्बानी हृदय की है। क्योंकि हृदय का अर्थ है तरलता।
तुम जितना हार्दिक आदमी पाओगे उतना तरल पाओगे। इसीलिए तो हम कहते हैं-किसी आदमी में अगर तरलता न हो तो कहते हैं इसका हृदय पाषाण हो गया, पत्थर हो गया। हम कहते हैं, पत्थर भी पिघल जाए लेकिन इस आदमी का हृदय नहीं पिघलता। यह मुहावरा कीमती है। यह घटना तब घटती है जब अहंकार इतना मजबूत हो जाता है कि अहंकार के परकोटे में छिप जाता है हृदय, अहंकार के पत्थरों में छिप जाता है। उसका पता ही खो जाता है। वह तुम्हारे भीतर होता है, पड़ा रहता है निर्जीव, निष्क्रिय।
हृदय तरल है, और आत्मा वाष्पीभूत रूप है, अहंकार पत्थर की तरह है जमा हुआ बर्फ। इसलिए अहंकार तुम्हारी खोपड़ी में जीता है, मस्तिष्क में, विचार में। वे सब मुर्दा हैं। अहंकार उन हड्डियों-पसलियों को इकट्ठा कर लेता है। उस अस्थिपंजर-विचारों के अस्थिपंजर-के ऊपर अकड़ कर बैठ जाता है। वहीं उसकी गति है। उससे नीचे, उससे गहरे में उसकी कोई गति नहीं है।
उससे नीचे हृदय है, जहां सब तरल है, पानी की तरह है। और उससे भी गहराई में तुम्हारी आत्मा है जो वाष्प की तरह है, जो कि लीन, शून्य है, जिसको तुम छू न सकोगे, जिसे तुम देख न सकोगे, जिसे तुम मुट्ठी में बांध न सकोगे, जिसका कोई स्पर्श नहीं हो सकता और न कोई दर्शन हो सकता है। क्योंकि तुम ही वही हो।
और जिसे भी अंतर्यात्रा करनी हो, उसे पहले मस्तिष्क की बर्फ पिघलानी पड़ती है। उसके पिघलने पर पहली दफा तरल हृदय का पता चलता है। फिर तरल हृदय को भी तपश्चर्या, योग, ध्यान से वाष्पीभूत करना होता है। और जैसे-जैसे तरल हृदय वाष्पीभूत होने लगता है, तुम्हें पहली दफा आत्मा के आकाश का अनुभव होता है। सब द्वार गिर जाते हैं, सब दीवालें मिट जाती हैं। अनंत आकाश है। जितना अनंत आकाश तुमसे बाहर है उतना ही अनंत आकाश तुम्हारे भीतर है; उससे रत्ती भर भी कम नहीं है। और चांद-तारों का सौंदर्य कुछ भी नहीं है जब तुम्हें भीतर के चांद-तारे दिखाई पड़ेंगे। तब बाहर के सूर्योदय का कोई भी अर्थ नहीं है, क्योंकि कबीर कहते हैं कि मेरे भीतर हजार-हजार सूरज जैसे एक साथ उग गए हैं।
जब तुम भीतर के आकाश को देख पाओगे तब तुम समझोगे कि तुमने कितनी बड़ी कीमत पर क्षुद्र से अहंकार को सजा कर, क्षुद्र से अहंकार को लेकर बैठ गए थे। एक पत्थर की पूजा कर रहे थे, और जीवंत भीतर तड़प रहा था। पक्षी भीतर मौजूद था जो आकाश में उड़ सकता था, और तुम पक्षी को तो भूल ही गए थे, लोहे के पिंजड़े को पकड़ कर बैठ गए थे। और उसकी ही पूजा चल रही थी।
लाओत्से कहता है, 'पानी से दुर्बल कुछ भी नहीं है, लेकिन कठिन को जीतने में उससे बलवान भी कोई नहीं है।'
और अगर कठिन को जीतना हो तो पानी जैसे हो जाना। और तुमसे ज्यादा कठिन क्या है? अगर तुम्हें स्वयं को भी जीतना हो तो पानी जैसे तरल हो जाना, तो ही जीत पाओगे, अन्यथा नहीं। यह जीत की बात किसी और को जीतने के लिए नहीं है, जीत की बात अंततः तो आत्म-विजय के लिए है।
दूसरे को जीतने जो चला है वह तो कठोर होगा ही। तुमने कभी किसी आदमी को झगड़े में पानी उठा कर किसी को मारते देखा है? लोग पत्थर उठा कर मारते हैं, पानी उठा कर नहीं। जब कोई दूसरे से लड़ने चलेगा तब तो तुम्हारा पूरा तर्क तुम्हें कहेगा कि पत्थर जैसे हो जाओ! पीस डालो दूसरे को पत्थर के नीचे!
लेकिन ध्यान रखना, जब तुम दूसरे के लिए पत्थर जैसे होते हो तभी एक बड़ी भारी घटना तुम्हारे भीतर घट
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