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ताओ उपनिषद भाग ६
परमात्मा को खोने का एक ही ढंग है कि तुम दूसरे से उलझ जाओ। तो तुम्हारी नजर अपने पर लौटना मुश्किल हो जाती है। कैसे आएगी?
राजनीतिज्ञ हमेशा दूसरे की सोचता है। इंदिरा के सपनों में जयप्रकाश होंगे, जयप्रकाश के सपनों में इंदिरा होगी। न जयप्रकाश को अपना पता, न इंदिरा को अपना पता। फुरसत कहां? दूसरे पर नजर है। जो पहुंच गया पद पर उसकी भी नजर दूसरे पर है। क्योंकि लोग पैर खींच रहे हैं, उनसे बचना जरूरी है। क्योंकि दूसरों को भी प्रथम होना है। और सभी तो प्रथम नहीं हो सकते इस संसार में। सभी तो दिल्ली के सिंहासन पर नहीं बैठ सकते। अन्यथा सिंहासन भारत जितना बड़ा बनाना पड़ेगा। वह सिंहासन ही न रह जाएगा। वह भारत ही हो जाएगा। तुम बैठे ही हो सिंहासन पर; फिर कोई जरूरत ही नहीं दिल्ली जाने की। सिंहासन पर तो कोई एक बैठ सकता है। और पचास करोड़ प्रतिस्पर्धी होंगे जो सब तरफ से तुम्हारे रोएं-रोएं को खींच रहे हैं।
तो जो पद पर बैठा है वह भी निश्चित नहीं है कि अपनी सोच ले। पद पर जो बैठा है उसे पद की रक्षा करनी है; जो पा लिया उसकी रक्षा करनी है। अन्यथा एक क्षण में ही खो जाएगा। चारों तरफ दुश्मन मौजूद हैं; दुश्मन ही दुश्मन हैं। और जो पद पर नहीं पहुंचा है वह भी कैसे निश्चित होकर ध्यान करे? वह कैसे आंख बंद करे? वह कैसे प्रार्थना-पूजा में उतरे? सोचता है, जब सिंहासन पर पहुंच जाएंगे, जब सब पा लेंगे, तब कर लेंगे पूजा। अभी क्या जल्दी है? और अभी अगर पूजा में लग गए तो ये दूसरे जो आगे निकले जा रहे हैं, और आगे निकल जाएंगे। करोड़ों लोग चल रहे हैं सिंहासन की खोज में। तुम पूजा के लिए बैठ गए रास्ते के किनारे उतर कर, भटक जाओगे, पीछे छूट जाओगे। फुरसत कहां है? भागो, दौड़ो। न सोओ, न ठीक से भोजन करो।
प्रेम खो जाता है, प्रार्थना की तो बात दूर। पद का आकांक्षी न प्रेम कर सकता है, न दो क्षण बैठ कर गीत सुन सकता है। न संगीत का रस ले सकता है, न फूलों को देख सकता है। सारी ऊर्जा उसे लगानी पड़ती है प्रतिस्पर्धा में। भयंकर संघर्ष है। उस संघर्ष में सुविधा नहीं। सोचता है, सिंहासन पर पहुंच कर! सिंहासन पर पहुंचा आदमी डरा हुआ है पूरे वक्त। क्योंकि चली आ रही है भीड़ हजारों प्रतिस्पर्धियों की। वे सभी जान लेने को तत्पर हैं।,
सिंहासन पर बैठा भी दूसरों को देखता रहता है; सिंहासन पर जो नहीं हैं वे भी दूसरों को देखते रहते हैं : कोई आगे न निकल जाए। जो पीछे हैं उन्हें पीछे रखना है। जो आगे हैं उन्हें भी पीछे करना है। एक पल खोने को नहीं है। जिंदगी एक कशमकश मालूम होती है, एक गहन संघर्ष और एक युद्ध। कैसे तुम अपनी तरफ देखोगे?
जिसने पहले होने की दौड़ में भाग ले लिया, वह और सबको देखेगा, अपने भर को न देख पाएगा। और जो अपने को न देख पाएगा वह कैसे प्रथम होगा? क्योंकि प्रथम तो तुम हो ही। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम खोजते कहां हो? तुम पाने कहां चले हो? तुम दूसरों के द्वार पर दस्तक दे रहे हो, और तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। उसे तुम लेकर ही आए हो। वह तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वभाव है।
इसलिए ज्ञानी कहते हैं कि जो प्रथम होने की दौड़ में लग जाएगा वह परमात्मा के राज्य में अंतिम रह जाएगा।
दौड़ में कुछ बुराई न थी। अभीप्सा बिलकुल ठीक थी। लेकिन विधि गलत हो गई। अगर तुम वस्तुतः प्रथम होना चाहते हो तो जीसस ठीक कहते हैं कि तुम अंतिम खड़े हो जाओ। क्योंकि जो अंतिम खड़ा है उसे कोई भी भय नहीं, उससे कोई कुछ छीन नहीं सकता। उसके पास कुछ है ही नहीं, तुम छीनोगे क्या? तो वह निश्चित बैठ सकता है। वह आंख बंद करके ध्यान कर सकता है। वह अपने स्वभाव में उतर सकता है। उसकी किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वह अंतिम है। उससे पीछे कोई है ही नहीं जो उससे आगे निकलना चाहे। उसके आगे जो है वह तो प्रसन्न है कि तुम ध्यान कर रहे हो, बैठे हो, बहुत अच्छा, कृपा है; ऐसे ही बैठे रहना। नहीं तो एक प्रतियोगी और बढ़ जाता है।
इसीलिए तो संसारी लोग संन्यासियों का पैर छूते हैं। वे कहते हैं, बड़ी कृपा! संन्यास ले लिया, बड़ा अच्छा
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