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जीवन कोमल हैं और मृत्यु कठोर
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चुपचाप जी लेना - जैसे वृक्ष जीते हैं, पशु-पक्षी जीते हैं, चांद-तारे जीते हैं - कि किसी को तुम्हारी खबर भी न हो, तुम्हारे पदचिह्न इतिहास के पृष्ठों पर पड़ें ही न । समय की धार में तुम्हारी रेखा भी न उभरे, तुम्हारा हस्ताक्षर कहीं भी दिखाई न पड़े। ऐसे जी लेना जैसे पानी पर किसी ने लकीर खींची हो, खींची और मिट गई। तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में बड़े फूल खिलते हैं। जब तुम ना-कुछ होने को राजी होते हो, शून्य होने को, तब तुम्हारे भीतर पूर्ण होने की क्षमता आ जाती है।
सिर्फ शून्य ही पूर्ण हो सकता है। इसलिए शून्य को मैं परमात्मा का मंदिर कहता हूं। और साधारण होने को संन्यास कहता हूं। असाधारण होने की आकांक्षा पागलपन में ले जाती है। और असाधारण होने की आकांक्षा बड़ी साधारण है, सभी की है। और जिसने साधारण होना चाहा वही असाधारण हो जाता है। क्योंकि साधारण कौन होना चाहता है? निर्विचार होकर देखोगे तो जो लाओत्से की समझ है वही तुम्हारी समझ भी हो जाएगी। और मैं फिर से कहता हूं, लाओत्से से ज्यादा जीवन का सीधा निरीक्षक खोजना मुश्किल है।
आज इतना ही ।