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धर्म का सूर्य अब पश्चिम में उगेगा
ऐसा समझो कि अगर मैं तुम्हें कोई बात बताऊं, वह इतनी दूर मालूम पड़े कि जैसे एवरेस्ट का शिखर हो, तो तुम बात ही छोड़ दो, तुम कहो कि यह अपने से होने वाला नहीं है। अपनी जिंदगी ठीक, और अपन ठीक। लेकिन मैं तुम्हें एक छोटी सी पहाड़ी बताऊं जिसको तुम चढ़ सकते हो, फिर तुम्हें और बड़ी पहाड़ी बताऊं; क्योंकि छोटी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद तुम्हारा साहस बढ़ जाएगा, स्वयं में आस्था बढ़ जाएगी; फिर और बड़ी पहाड़ी बताऊं। एक दिन जब तुम्हें रस पकड़ जाए पहाड़ों को चढ़ने का, तब मुझे बताना भी न पड़ेगा, तुम खुद ही पूछने लगोगे कि अब आखिरी बता दें! बार-बार चढ़ने-उतरने का क्या सार; अब उसको ही चढ़ लें जिसके बाद चढ़ने को फिर कुछ बचता नहीं है।
तुम्हें देख कर बोलना पड़ता है: तुम्हारी समझ कहां तक खींची जा सकती है? कहीं ऐसा तो न होगा कि बात बिलकुल तुम्हारे सिर पर से निकल जाएगी।
और निश्चित ही अर्जुन भला आदमी था, अत्यंत भला था। अन्यथा कभी युद्ध के मैदान में किसी को इतना होश आता है कि सोचे? क्रोध से, ज्वर से भरा हुआ जब दुश्मन सामने खड़ा हो, तुम्हें भी खयाल आता है कभी? जब दूसरा तुम्हें गाली दे रहा हो और शंख बजा दिए हों युद्ध के, तब तुम्हें यह खयाल आता है कि मारूं, न मारूं? मारना उचित होगा कि न मारना? खयाल की बात कहां, तुम्हें होश ही नहीं रह जाता। युद्ध के क्षण में होश की बात करनी, युद्ध के क्षण में इस तरह बोलना जैसा संन्यासी को शोभा देता है; सैनिक की बात ही नहीं है अर्जुन में।
और यह, जिस गणित को मैं निरंतर तुम्हें समझाता हूं, उसे फिर तुम्हें समझाऊं: जब कोई सैनिक अपनी सैन्य शक्ति की पराकाष्ठा पर होता है तब संन्यास का जन्म हो जाता है। क्योंकि जान लिया सब; अर्जुन ने सब जान लिया खेल मारने का, मरने का। वह कोई छोटा-मोटा सैनिक नहीं है; उससे बड़ा कोई सैनिक नहीं हुआ। वह प्रतिमान है सैनिकों का। उसने सब जान लिया; सब तरह के खेल हिंसा के जान लिए। इस तरफ या उस तरफ उसका कोई भी मुकाबला नहीं है। वह बेजोड़ है। इस बेजोड़ सैनिक के मन में संन्यास का भाव आ रहा है। छोटे-मोटे सैनिक के मन में नहीं आता; अभी सेना की यात्रा बाकी है, अभी लड़ना बाकी है। यह लड़ चुका, जीत चुका, सब देख चुका; सबको व्यर्थ पाया, संन्यास का भाव उठ रहा है।
इसलिए तुम चकित होओगे, क्षत्रियों ने जितने संन्यासी पैदा किए हैं, और जितने गहन संन्यासी, उतने ब्राह्मणों ने पैदा नहीं किए। क्षत्रियों की बात ही और है। उन्होंने देख लिया सब राग-रंग हिंसा का, इसलिए अहिंसा की बात उनकी समझ में आती है। - इसलिए मैं गांधी और महावीर की स्थिति को बड़ा भिन्न मानता हूं। महावीर क्षत्रिय हैं; गांधी बनिया हैं। महावीर जिनको समझा रहे थे वे सब सैन्य-जीवन में निष्णात लोग थे; गांधी जिनको समझा रहे थे वे सब डरे हुए, डरपोक लोग थे, भयभीत लोग थे। अन्यथा एक हजार साल तक कोई कौम गुलाम रहती है? और एक छोटी सी कौम इतनी विराट कौम को तीन सौ साल तक, दो सौ साल तक गुलाम रख ले! उसके पहले आठ सौ साल तक इसलाम गुलाम रखे। एक हजार साल लंबे समय तक जो कौम गुलाम रही हो, वह कोई बहादुरों की कौम नहीं हो सकती। वे डरपोक हैं, कमजोर हैं, कायर हैं। गांधी कायरों से बोल रहे थे।
और इसलिए गांधी की अहिंसा सिर्फ एक तरकीब थी। मनुष्य बहुत तरकीबें खोजता है अपनी कायरता को छिपा लेने की। और गांधी की बात कायरों को जंच गई और काम भी कर गई। काम भी कर गई, लेकिन काम होते ही सब बिखर गया। क्योंकि जैसे ही कायर ताकत में आए, फिर वे भूल गए अहिंसा वगैरह। बिलकुल आसान था ब्रिटिश हुकूमत से लड़ना अहिंसा से, क्योंकि हिंसा से लड़ने की हमारी कोई सामर्थ्य ही न थी। लेकिन जैसे ही शक्ति में आई अहिंसकों की सेना, वैसे ही वे सब हिंसक हो गए, वैसे ही उठा ली बंदूक।
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