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ताओ उपनिषद भाग ६
अब यहां मैं देखता हूं, भारतीय संन्यासी हैं, उनमें मैं वैसी समग्रता नहीं देखता, ध्यान भी करते हैं तो कुनकुना-कुनकुना। ऐसा कर लेते हैं, क्योंकि मैं कहता हूं। करने में ऐसा लगता है कि मैंने कहा इसलिए कर रहे हैं। पूरा प्राण दांव पर नहीं लगाते, कुछ बचाते हैं। पश्चिम का संन्यासी आता है, पूरा प्राण दांव पर लगा देता है। कुछ भी नहीं बचाता, जिंदगी को दांव पर लगा देता है। जल्दी ही परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
रोज मैं देख कर चकित हूं! भारतीय आता है, वह कहता है कि यह ध्यान किया, यह जमता नहीं; वह ध्यान किया, वह भी नहीं जमता; इसको करने में सांस पर तकलीफ मालूम होती है, उसको करने में पैर थक जाते हैं। हजार बहाने हैं। अभी कोई बता दे कि सोने की खदान है तो वह पहाड़ चढ़ जाए। अभी खबर भर मिल जाए उसको कि कहीं धन बंट रहा है तो वह जी-जान दांव पर लगा दे। लेकिन ध्यान में वह कहता है, पैर दुखते हैं; ध्यान में वह कहता है कि इतनी देर सांस नहीं ली जाती। पश्चिम से जो लोग आते हैं वे यह नहीं कहते; वे पहले पूरा दांव लगाते हैं, पूरा करके देखते हैं। उनकी अगर कोई तकलीफ होती है तो वह चौथे चरण की होती है ध्यान की, तीन चरणों की कभी नहीं। और जब भी भारतीय आते हैं तो तीन चरणों की कठिनाई होती है, चौथे की वह बात ही नहीं, क्योंकि चौथा तो आता ही नहीं। जब तीन ही पूरे नहीं होते तो चौथा कैसे आएगा?
इससे मैं चकित हूं कि बात क्या है! पश्चिम जो भी करता है परिपूर्णता से करता है। या तो करता नहीं या करता है तो परिपूर्णता से करता है। पूरब कुछ ढुलमुल हालत में है; करता भी है, अधूरा करता है। पूरब का मन बड़ी दुविधा में दिखता है। पूरब की स्थिति ऐसी है कि वह चाहता है संसार भी सम्हाल ले और परमात्मा को भी सम्हाल ले। वह एक कदम इस नाव में और दूसरा कदम उस नाव में। और दोनों नावें दो अलग दिशाओं में जा रही हैं। वह संकट में पड़ता है। दांव पर लगाने की हिम्मत पूरब ने खो दी है।
और उसका कारण वही है कि पहली दो सीढ़ियां नहीं हैं। दांव पर लगाने की हिम्मत तो तभी आती है जब तुम समझ लेते हो कि यहां कुछ सार्थक है ही नहीं, लगा दो। जब तक तुम्हें लगता है कि यहां संसार में कुछ सार्थक है बचाने योग्य, इसको जरा साथ में ही लेकर अगर धर्म की यात्रा पर जा सके तो अच्छा होगा, तब तक तुमने पहली दो सीढ़ियां पार नहीं की हैं।
इसलिए तुम यह पूछ कर अपने मन में बहुत प्रसन्न मत होना कि पश्चिम बहुत निराश है, विषाद है, अर्थहीन अनुभव कर रहा है। सौभाग्य होगा कि तुम भी इतने ही विषाद से घिर जाओ और इस व्यर्थ के जीवन को तुम भी व्यर्थ जानो; इस अर्थहीन दौड़ को तुम भी अर्थहीनता की तरह पहचान लो; तुम भी इतने हताश हो जाओ कि जीवन में कुछ भी सार न दिखाई पड़े, ताकि तुम पूरे जीवन को दांव पर लगा सको। वह आगे की छलांग तुम्हें पूरा का पूरा मांगती है; अधूरे से काम न चलेगा। आधा कहीं कोई यात्रा पर गया है? आधे घर और आधे यात्रा पर? जाना हो तो पूरे ही जाना होगा।
कबीर ने कहा है : जो घर बारे आपना चले हमारे संग। जला दो घर तो हमारे साथ चल सकते हो।
वे किस घर की बात कह रहे हैं? वे उस घर की बात कह रहे हैं जिसको तुम बचाना चाहते हो। तुम घर भी । रहना चाहते हो और यात्रा पर भी जाना चाहते हो। असल में, तुम मुफ्त में पाना चाहते हो परमात्मा को। या तुम परमात्मा को भी इसीलिए पाना चाहते हो ताकि संसार के संबंध में कुछ वरदान मांग लो।
तुमने कभी सोचा, अगर परमात्मा तुम्हें मिल जाएगा तो तुम क्या मांगोगे? सोचना ईमानदारी से कि अगर परमात्मा मिल ही जाए कल सुबह उठते ही से, तुम क्या मांगोगे? एक कागज पर जरा लिखना। तीन चीजें तुम मांग सकते हो, तो लिखना कि कौन सी तीन चीजें मांगोगे। तुम खुद ही चकित होओगे कि क्या मांगने की आकांक्षा आ रही है कि एक सुंदर पत्नी, फिल्म अभिनेत्री, कोई बड़ा मकान, कि बड़ी कार, कि मुकदमे में जीत-क्या मांगोगे? तुम
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