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ताओ उपनिषद भाग ६
खयाल आता है। क्या होगा कारण? अपनी ही आवाज को सुन कर लगता है, अकेला नहीं हूं। जोर से अपनी ही आवाज की गूंज में अंधेरे और स्वयं के बीच एक पर्दा खड़ा हो जाता है। गुनगुनाहट हिम्मत दे देती है। कदमों में बल आ जाता है। पर यह सब गुनगुनाहट, यह सब बल उठ रहा है भय से।
भय से कहीं शक्ति का जन्म हुआ है? इसलिए तो सारा धर्म करीब-करीब व्यर्थ चला जाता है। क्योंकि सारा धर्म मनुष्य के भय से जुड़ जाता है।
यह जो भयभीत आदमी है इसकी मनस-दशा को ठीक से समझ लेना चाहिए, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तुम्हारी मनस-दशा भी इसी भयभीत आदमी की मनस-दशा होगी। और तुमने अगर इसे ठीक से न समझा तो तुम दूसरी तरह के आदमी कभी भी न बन सकोगे। इस भयभीत आदमी को न तो प्रेम का कोई उपाय है, न प्रार्थना का। क्योंकि प्रेम तो तभी जन्मता है जब भय समाप्त हो जाता है। और प्रार्थना तो अभय में पैदा होती है। अभय की भूमि चाहिए, तभी प्रार्थना का बीज खिलता है। और अभय से उठे स्वर ही परमात्मा तक पहुंचते हैं।
भयभीत आदमी क्यों भयभीत है? उसके भय का मूल कारण क्या है?
मूल कारण है : अमावस की अंधेरी रात में, आत्म-अज्ञान की अंधेरी रात में मौत ही सत्य मालूम होती है, . जीवन सत्य मालूम नहीं होता। मौत प्रतिपल आती मालूम होती है, और जीवन तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। जीवन के नाम पर तो आपाधापी मालूम होती है, व्यर्थ की दौड़ मालूम होती है, जिसका कोई प्रयोजन, जिसका कोई अर्थ कहीं दिखाई नहीं पड़ता। और मृत्यु प्रतिपल आती मालूम पड़ती है, हर क्षण उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ती है। जगह-जगह वही द्वार पर दस्तक देती है। अंधेरी रात में तुम क्यों डर जाते हो? मौत मालूम होने लगती है सब तरफ छिपी हुई; कहीं पत्ता भी हिलता है तो लगता है मौत के चरण पड़ रहे हैं। हवा का झोंका द्वार को खटखटाता है, लगता है, मौत ने दस्तक दी।
जैसी अंधेरी रात में दशा होती है, उससे भी भयंकर दशा आत्म-अज्ञान की है। क्योंकि अंधेरी रात का अंधेरा तो बाहर है, आत्म-अज्ञान का अंधेरा भीतर है। भीतर का अंधेरा बहुत गहन है। भयभीत, अंधेरे में डूबा आदमी मौत को ही सच मानता है, जीवन को नहीं। जीवन तो अभी आया, अभी गया। जीवन तो ऐसा है, अंधेरी रात में जैसे जुगनू की चमक; हुई कि न हुई। और इस जुगनू की चमक का उपयोग भी क्या करोगे? उस जुगनू की चमक में जी तो नहीं सकते। उस जुगनू की चमक से कोई प्रकाश तो नहीं हो सकता, कोई रास्ता तो दिखाई नहीं पड़ सकता। वस्तुतः जुगनू की चमक के बाद रात का अंधेरा और घना हो जाता है। ऐसा ही अंधेरे में जीने वाले आदमी का जीवन है-जुगनू की चमक की भांति। अंधेरा भयंकर है, और जीवन बस जुगनू जैसा है। मौत व्यापक है, विराट है, और जीवन बस जरा सी चहल-पहल है। फिर मौत आएगी, पर्दा गिरेगा, सब मिट्टी में मिट्टी मिल जाएगी।
घबड़ाहट स्वाभाविक है। अगर तुम मिट्टी से ही बने हो तो अभय हो भी कैसे सकता है? अगर तुम मिट्टी के ही पुतले हो और अभी तभी गिरे। जरा सी वर्षा आएगी और रंग-रोगन बह जाएगा। और जरा सा झोंका आएगा और तुम्हारा भवन गिर जाएगा। जरा सी देर की बात और है, और तुम कब्र पर पहुंच जाओगे; जिन्हें तुमने अपना कहा था वे ही तुम्हें चिता पर जला आएंगे। बस जरा सी देर और है। इस जरा सी देर को कोई कैसे जीवन माने? इस जरा सी देर के कारण ही कोई कैसे आश्वस्त हो? यह थोड़ा सा जो क्षणभंगुर जीवन है बुलबुले जैसा, इससे कैसे कोई भरोसा करे? डर स्वाभाविक है।
आलोक में जीने वाले आदमी का जीवन बिलकुल भिन्न है। जिसने स्वयं को जाना उसने एक बात जानी कि मौत झूठ है, जीवन सत्य है। जिसने स्वयं को पहचाना, उसे पता चला, मैं तो अमृत हूं। मृत्यु न तो कभी हुई है और न कभी हो सकेगी। मृत्यु सबसे ज्यादा असंभव घटना है जो कभी हुई नहीं, कभी होगी भी नहीं; जिसका होना हो ही
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