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ताओ उपनिषद भाग६
देकर साध्वी बनाने को राजी न था। और उसके प्राणों में बड़ी उत्कंठा थी कि वह साध्वी हो जाए। तो कथा है कि उसने अपने चेहरे को जला लिया। जब वह चेहरे को जला कर गई तो स्वीकृत कर ली गई।
तो तुम्हारे साधुओं की आंख भी लगी तो चमड़ी पर ही है। जला हुआ चेहरा स्वीकृत हो सकता है; सुंदर चेहरा स्वीकृत नहीं होता। क्योंकि सुंदर चेहरा तो वैसे ही सता रहा है; सपनों में सता रहा है। और वास्तविक रूप से मौजूद हो जाए तो और मुसीबत खड़ी हो जाएगी।
ईसाइयों ने इस तरह के आश्रम बना रखे हैं, ऐसे आश्रम हैं, जहां कोई स्त्री प्रवेश नहीं कर सकती। सैकड़ों साल से किसी स्त्री ने आश्रम में प्रवेश नहीं किया है। और ऐसे आश्रम हैं जहां कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता। मध्य युग में एक बड़ी अनूठी घटना घटी वहां। वह घटना यह थी कि स्त्रियां, जिनके आश्रम में कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता, धीरे-धीरे मिरगी की बीमारी की शिकार होने लगीं। उन्हें फिट आने लगे। और फिट की अवस्था में वे उस तरह की भाव-भंगिमा करने लगीं जैसी स्त्रियां संभोग में करती हैं। और उन स्त्रियों ने कहा कि शैतान उनके साथ संभोग कर रहा है। यह बीमारी इतने जोर से फैली कि कुछ समझ में न आया कि क्या किया जाए। और अनेक साध्वियां इसकी शिकार हो गईं।
अब मनसविद कहते हैं कि कुछ मामला न था। न कोई शैतान संभोग कर रहा था; न कोई शैतान है। मगर स्त्रियों ने इतनी-इतनी कामना की भीतर पुरुष की कि कल्पना सजीव हो गई। और पुरुष का अभाव इतना ज्यादा भीतर भर गया कि कल्पना को उन्होंने यथार्थ मान लिया।
इसका तुम्हें भी अनुभव हो सकता है। अगर तुम इक्कीस दिन के लिए मौन में चले जाओ, भोजन न करो, उपवास कर लो, तो तुम सातवें-आठवें दिन उपवास के बाद पाओगे कि तुम्हें भोजन यथार्थ रूप से दिखाई पड़ना शुरू हो गया। सपने में लड्डु बरसते हुए मालूम होंगे पहले, फिर धीरे-धीरे लड्डु ज्यादा वास्तविक होने लगेंगे। जैसे-जैसे भूख बढ़ेगी वैसे-वैसे कल्पना प्रगाढ़ होने लगेगी। अगर तुम इक्कीस दिन मौन में उपवास कर जाओ तो इक्कीस दिन करीब आते-आते तुम पाओगे कि तुम काल्पनिक भोजन कर रहे हो।
साधु डरता है, भयभीत है; असाधु डरता नहीं। इतना ही फर्क है। उनके दोनों के जीवन व्यवस्था में कोई अंतर नहीं; उनका तल एक है। और साधु अपना सम्मान करने का एक ही उपाय पाता है कि तुम्हारी निंदा करता रहे। तुम्हारी निंदा से वह अपने को भी समझाता है। वह एक तरकीब है। जब वह तुम्हारे सामने निंदा करता है कामवासना की, तब वह अपने को भी समझा रहा है कि कामवासना नरक है, पाप है। और जब तुम्हारी आंखों में झलक देखता है कि बिलकुल ठीक कह रहा, तुम जब ताली बजाते हो, तब उसे फिर भरोसा आ जाता है, फिर-फिर भरोसा आ जाता है कि मैं बिलकुल ठीक हूं।
और तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम्हें पता है कि कामवासना तुम्हें बहुत कष्टों में डाले हुए है। तो जब कोई निंदा करता है, तुम स्वीकार करते हो। करना ही पड़ेगा। तुम पीड़ा में हो। तुम्हें भी पता है कि क्रोध ने कष्ट दिया है। तुम्हें भी पता है कि ईर्ष्या ने जलाया है; फफोले पड़ गए हैं भीतर। तो जब भी कोई इनकी निंदा करता है, तुम्हारा सिर भी हिलता है कि बात तो ठीक है। जब तुम्हारा सिर हिलते देखता है साधु, तब उसे फिर वापस भरोसा आ गया।
भरोसा बड़ी अजीब चीज है। मुल्ला नसरुद्दीन एक मकान बेचना चाहता था। तंग आ गया था, कोई खरीदार न मिलता था। एक एजेंट को बुलाया। एजेंट ने विज्ञापन दिया अखबारों में। मुल्ला ने विज्ञापन पढ़ा, बड़ा प्रभावित हुआ। एजेंट ने ऐसा वर्णन किया था मकान का कि सुंदर झील के किनारे, बड़े वृक्षों के पास, बड़ा प्राचीन भवन है, जिसका लंबा इतिहास है, बड़े कुलीन लोग जिसमें रह चुके हैं। मुल्ला का अनुभव तो कहता था, सिर्फ खंडहर है, और झील के नाम पर एक गंदी तलैया है जिसमें सिवाय मच्छरों के और कुछ भी पैदा नहीं होता, और प्राचीनता के
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