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माज निर्भय के विरोध में है, क्योंकि निर्भय के साथ असुरक्षा जुड़ी है। निर्भय खतरे में ले जा सकता है। निर्भय उन रास्तों पर ले जा सकता है जो कहीं न जाते हों। निर्भय लीक से उतर कर चलने की कोशिश करता है। नियम, व्यवस्था, परंपरा, इन्हें तोड़ने में निर्भय को बड़ा रस है। समाज भयभीत को बचाता है, निर्भय को नष्ट करता है। क्योंकि समाज को लगता है कि भयभीत समाज को बचाता है और निर्भय समाज को नष्ट कर देगा। इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें। निर्भय ही अपराधी बन जाता है। निर्भय ही क्रांतिकारी बन जाता है। निर्भय के बुरे रूप भी हैं; निर्भय के भले रूप भी हैं। अपराधी और क्रांतिकारी में एक समानता है—दोनों तोड़ते हैं। अपराधी उच्छंखल है; किसी और बड़ी व्यवस्था के लिए नहीं तोड़ता, तोड़ने के रस
के कारण ही तोड़ता है, विध्वंसक है। क्रांतिकारी भी विध्वंसक है, लेकिन इस आशा में तोड़ता है कि शायद तोड़ने से और बेहतर का निर्माण हो सके। हो या न हो, यह निश्चय नहीं।
समाज तो अपराधी और क्रांतिकारी को एक ही दृष्टि से देखता है। समाज के लिए तो दोनों से भय का द्वार खुलता है। समाज जीना चाहता है परिचित के साथ-जिस रास्ते का जाना-माना रूप है, जिस रास्ते का नक्शा है, जिस समुद्र में बहुत बार यात्रा की जा चुकी है, और अब कोई भय नहीं है; खो जाने का, मिट जाने का, बर्बाद हो जाने का कोई डर नहीं है। तभी समाज कदम उठाता है। इसलिए समाज हमेशा परंपरा, रूढ़ि, लकीर से बंधा होता है।
निर्भय अनजान में जाना चाहता है, अपरिचित सागरों की यात्रा करना चाहता है। जहां कभी कोई नहीं गया है वहां पदचिह्न छोड़ना चाहता है। समाज इसमें खतरा देखता है।
- समाज अपराधी के भी विपरीत है, क्योंकि वह नियम तोड़ता है। और नियम टूटने लगें तो समाज का कोई अस्तित्व बच नहीं सकता। समाज अंततः नियमों का एक जाल है। और एक बार लोगों की आस्था नियम से उठनी शुरू हो जाए तो उस आस्था को जमाना मुश्किल है।
इसलिए जो व्यक्ति भी इस तरह का दुस्साहस करता है, समाज उसे भयंकर रूप से दंडित करता है। और बड़े से बड़ा दंड है जीवन को छीन लेना; बड़े से बड़ा दंड है मृत्यु-दंड; उस आदमी के जीवन की संभावना को ही नष्ट कर देना। इसका अर्थ हुआ कि समाज ने तय कर लिया कि इस आदमी से अब कोई भी आशा नहीं है। इसलिए इसे
और जीने की कोई सुविधा नहीं दी जा सकती। इस आदमी को समाज ने मान लिया कि असाध्य है। जब तक साध्य मालूम होता है तब तक समाज छोटे दंड देता है; जब असाध्य मालूम होता है, असंभव मालूम होता है, तब समाज उस आदमी से जीवन छीन लेता है। जीवन छीनने का अर्थ है कि हम तुमसे परिपूर्ण रूप से हताश हो गए और अब तुमसे हमें कोई भी आशा नहीं कि तुम वापस मार्ग पर चल सकोगे। कुमार्ग पर चलना तुम्हारे जीवन की शैली हो गई। अब यह कोई फुटकर कृत्य नहीं है; तुम्हारे होने का ढंग ही हो गया। इसलिए तुम्हारे होने को हम मिटा देंगे।
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