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ताओ उपनिषद भाग ६
समाज जब यह निर्णय लेता है तो इसके साथ ही दूसरा निर्णय भी जुड़ा है। जैसे वह निर्भीक को मिटाता है, दुस्साहसी को, उसके साथ ही साथ वह भीरु को बचाता है।
लाओत्से तो उसे भी साहसी कहता है। और वह समझने जैसा है।
लाओत्से कहता है, कुछ साहसी हैं आक्रमण करने में, और कुछ साहसी हैं आक्रमण न करने में। भीरु का भी तो एक प्रकार का साहस है। जब निमंत्रण आता है अनजान का, जब बुलाते हैं ऐसे रास्ते अनचीन्हे, अनपहचाने, तब साहस करके वह लीक से ही रुका रहता है। वह भी साहस है। दुस्साहसी उसे कहता है कि तुम में कोई भी साहस नहीं, क्योंकि दुस्साहसी से वह विपरीत है। लेकिन जब चारों तरफ से निमंत्रण मिल रहा हो स्वच्छंदता का, बुलावा आ रहा हो अनचीन्हे रास्तों पर जाने का, अपरिचित सागर का आमंत्रण आ गया हो, तब तट से बंधे रहना, वह भी साहस है; वह भी टेंपटेशन को, उत्तेजना को रोकना है।
लाओत्से कहता है, भीरु भी साहसी है। भय को पकड़े रखता है, चाहे कुछ भी हो; रास्ते को छोड़ता नहीं, नियम को तोड़ता नहीं; आंख बंद रख कर माने चला जाता है कि रूढ़ि ठीक है। समाज इसे बचाता है, क्योंकि समाज इसके द्वारा ही बचता है। समाज भीरु की बड़ी प्रशंसा करता है। वह उसे सज्जन कहता है; दुस्साहसी को दुर्जन कहता है। भीरु को साधु कहता है; दुस्साहसी को असाधु कहता है। क्योंकि भीरु ही कवच है समाज का।
इसलिए समाज की पूरी चेष्टा होती है कि जैसे ही नया बच्चा पैदा हो उसे भयभीत कर दिया जाए, उसे डराया जाए, हजार डर उसके मन में बिठा दिए जाएं। तो ही वह समाज के काम का हो सकेगा। तो ही वह राज्य का, समाज का, संस्कृति का सम्मान करेगा। उसे इतना डरा दिया जाए कि उसमें इतनी सुविधा ही न रह जाए कि वह कभी समाज से विपरीत पैर उठा सके। इसलिए नरकों का भय है, स्वर्गों का प्रलोभन है। इसलिए यहां भी, पृथ्वी पर भी हजार तरह के दंड हैं, हजार तरह के पुरस्कार हैं।
तुम किस आदमी को भला कहते हो? कौन सा आदमी शुभ है?
अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम्हारा सब शुभ भय के आस-पास निर्मित है। तुम कहते हो, यह आदमी चोर नहीं है। लेकिन तुमने कभी यह विचार किया कि जो चोर नहीं है उसने क्या चोरी इसलिए नहीं की है कि वस्तुतः उसकी अंतरात्मा से चोरी का भाव चला गया? या कि इसलिए नहीं की है कि वह चोर जैसा साहस नहीं जुटा पाया? चोर होना साधारण तो नहीं है, असाधारण कृत्य है। चोर होने के लिए एक विशेष तरह की प्रतिभा और क्षमता चाहिए। अपने ही घर रात अंधेरे में चलने में डर लगता है; दूसरे के अपरिचित घर में अंधेरे में दीवाल तोड़ कर घुस जाना और ऐसे चलना जैसे अपने बाप का घर हो और इस तरह सामान उठाना कि आवाज न हो, हृदय न धड़के। तुम्हारी तो छाती इतनी धड़कने लगेगी कि हाथ-पैर हिल न सकेंगे।
चोर भी एक तरह की कुशलता है दुस्साहस की। हत्यारा भी एक तरह की कुशलता है आत्यंतिक दुस्साहस की। दूसरे को मिटाने की बात ही सोचने के लिए बड़ी तैयारी चाहिए; दूसरे को मिटाने के लिए खुद को मिटाने की तैयारी चाहिए। क्योंकि जब तुम दूसरे को मिटाने जाते हो तो खुद को भी दांव पर लगाते हो। तुम दूसरे को मिटा दो और तुम बिना दांव पर लगे मिटा दो, ऐसा तो नहीं हो सकता। अपराधी के भी गुण हैं।
गैर-अपराधी जिसको तुम कहते हो, साधु जिसे कहते हो, उसके भी गहरे दुर्गुण हैं। भय के कारण अधिक लोग साधु हैं। चोरी नहीं कर सकते; इसलिए नहीं कि अचौर्य को उपलब्ध हो गए हैं, बल्कि इसलिए कि इतने भयभीत हैं कि चोरी की तरफ साहस नहीं होता। अगर उनको भी कोई पक्का भरोसा दिला दे कि न तो रास्ते पर पुलिस है, न अदालत में न्यायाधीश है, न ऊपर कोई परमात्मा है, न पाताल में कोई नरक है; अगर उन्हें कोई बिलकुल ही भय से मुक्त कर दे, वे भी चोरी पर निकल जाएंगे। यही तो समाज का डर है कि कहीं लोग भय से मुक्त
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