________________
ताओ उपनिषद भाग ६
शुद्ध लिखने में ही बात छिपी है। अशुद्ध को ढांकने के लिए शुद्ध लिखा जाता है। पाप को ढांकने के लिए पुण्य लिखा जाता है। और लिखने की सबसे सुगम व्यवस्था है कृत्य। तुम जो भीतर हो उसे छिपाने के लिए सुगमतम मार्ग है कि तुम ऐसा कुछ करो जो उसके विपरीत है। तुम सारी दुनिया को धोखा दे दोगे।
तो यहां व्यभिचारी मन वाला व्यक्ति ब्रह्मचारी होकर बैठ जाता है। कृत्य में होता है ब्रह्मचर्य, भाव में होता है व्यभिचार। यहां भाव में सारी दुनिया की संपत्ति पर कब्जा कर लेने की आकांक्षा वाला व्यक्ति सब धन छोड़ कर त्यागी हो जाता है। धोखा बड़ा गहरा है। और ठीक से सावधानीपूर्वक उसमें उतरना जरूरी है और समझना जरूरी है। अन्यथा तुम भी वही कर सकते हो। क्योंकि जिन्होंने किया है वे भी तुम जैसे ही मनुष्य हैं। तुम यह मत सोचना कि यह मैं किसी और के लिए कह रहा हूं। यह मैं तुमसे ही कह रहा हूं। यह बात सीधी-सीधी है। तुम भी अगर अपने जीवन की थोड़ी जांच-परख करोगे, विश्लेषण करोगे, तो जल्दी ही पहचान लोगे कि तुम जो करते हो वह उसे छिपाने का उपाय होता है तुम जो हो।
और संत का अर्थ है, तुम जो हो उसी को प्रकट हो जाने देना। साधु वह है जो भीतर असाधु है और बाहर साधु का कृत्य करता है। असाधु वह है जो भीतर भी असाधु है और बाहर भी असाधु का कृत्य करता है। संत वह है जो भीतर भी साधु है और बाहर भी साधु का कृत्य करता है। इस संसार में असाधु भी सच्चा है, संत भी सच्चा है; साधु सबसे बड़ा धोखा है। असाधु बाहर-भीतर एक जैसा है। भीतर चोरी है, बाहर भी चोरी है। संत भी बाहर-भीतर एक जैसा है। भीतर भी ब्रह्मचर्य है, बाहर भी ब्रह्मचर्य है। साधु प्रवंचना है; साधु धोखा है। साधु इस संसार में सबसे बड़ा झूठ है। वह भीतर असाधु है, बाहर साधु है। भीतर पाप है, बाहर पुण्य है। भीतर तो चाहेगा गर्दन दबा दे और बाहर वह मंत्र जपता रहता है : अहिंसा परमो धर्मः। अहिंसा परम धर्म है। असाधु सच्चा है, जैसा भीतर वैसा बाहर। संत भी सच्चा है, जैसा भीतर वैसा बाहर। इसलिए संत में और असाधु में एक तरह की समानता है; एक तरह की सच्चाई की समानता है। दोनों बड़े भिन्न हैं, बिलकुल विपरीत हैं, लेकिन एक सच्चाई की समानता है। दोनों प्रामाणिक हैं।
तुम कभी अपराधियों को देखो जाकर। तुमने देखा नहीं, क्यों अपराधी की तुम्हारे मन में इतनी निंदा है कि तुम उसे कभी देखते ही नहीं। जब निंदा इतनी हो तो आंख देखने की फिक्र ही छोड़ देती है; पर्दा पड़ जाता है। कभी कारागृह में जाकर अपराधियों को गौर से देखो। तुम अपराधियों की आंख में तुम्हारे साधुओं से ज्यादा साधुता पाओगे। एक सरलता मिलेगी; वे जैसे भीतर हैं वैसे बाहर हैं। साधु की आंख में तुम्हें एक जटिलता मिलेगी; दो पर्ते मिलेंगी साधु की आंख में। ऊपर की पर्त पर मुस्कुराहट होगी, भीतर की पर्त पर उदासी होगी। ऊपर की पर्त पर ईमानदारी होगी, भीतर की पर्त पर बेईमानी होगी। साधु दोहरा है। साधु द्वंद्व है।
इसलिए लाओत्से की पूरी चेष्टा है कि तुम असाधु को छोड़ कर कहीं साधु मत हो जाना। अगर उठना ही हो तो असाधु से संतत्व में उठना। साधु कोई उठना नहीं है। साधु तो फिर असाधु ही बने रहने का और भी ज्यादा समाज-सम्मत उपाय है। समाज राजी हो जाएगा, तुम्हारे कृत्य बदल गए। समाज को कुछ लेना-देना नहीं। तुम किसी की हत्या नहीं करते, किसी की स्त्री की तरफ बुरे भाव से नहीं देखते, किसी की स्त्री को लेकर नहीं भाग जाते, किसी की चोरी नहीं करते; बात खतम हो गई। समाज तुमसे निश्चित हो गया। तुम जानो तुम्हारे भीतर का।
लेकिन धर्म अभी निश्चित नहीं होता। धर्म कहता है, जब तक तुम भीतर से न बदले तब तक तुम्हारे बाहर से बदलने का क्या अर्थ है? धर्म के लिए कृत्य महत्वपूर्ण नहीं है; धर्म के लिए भाव महत्वपूर्ण है। धर्म तुम्हारी अंतरात्मा को बदलने में उत्सुक है; तुम्हारे आचरण को बदलने में नहीं। हां, अंतरात्मा की बदलाहट से आचरण बदल जाएगा, वह दूसरी बात है। पर वह धर्म की चिंता नहीं है। वह अपने आप होगा। वह ऐसे ही होगा जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चलती है।
206